‘आर्किटेक्चर नोबेल’ जीतने वाले पहले भारतीय बोले- मेरा दफ्तर वास्तुकला का अभयारण्य है

आज हर तरह की शिक्षा कंप्यूटरीकृत है, लेकिन आप कागज पर पेंसिल से वास्तुकला उतारने की भावना कभी बदल नहीं सकते। जब पेंसिल पकड़े आपका हाथ बढ़ता है, आपकी उंगलियां और आपकी आंखें आपके विचारों के साथ एकाग्र होती हैं।

नब्बे साल पहले मेरा जन्म पुणे के एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो पिछली दो पीढ़ियों से फर्नीचर के कारोबार में था। शायद इसी वजह से बहुत कम उम्र में मेरे भीतर कला के प्रति लगाव पैदा हो गया था। एक स्कूल टीचर ने पहली बार मुझे वास्तुकला के बारे में जानकारी दी। वास्तुकला के प्रति मेरी दिलचस्पी बढ़ती गई, जिस कारण बीस साल की उम्र में, जिस साल भारत आजाद हुआ, मैंने उस वक्त के नामचीन मुंबई के सर जे जे स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर से इस विषय की पढ़ाई की।

सहपाठियों की सलाह काम आई
मैं हाई स्कूल में था, जब मेरे एक दोस्त ने मुझसे अपने साथ चित्रकला की कक्षा में बैठने का आग्रह किया था। शायद उस दिन मैंने आर्किटेक्ट बनने की ओर अपना पहला कदम बढ़ाया था। जब मैं जे जे स्कूल में था, मेरे एक सीनियर प्रतिष्ठित संस्था रॉयल इंस्टीट्यूट ब्रिटिश आर्किटेक्ट की प्रवेश परीक्षा के लिए लंदन जा रहे थे। उन्होंने मुझसे भी किस्मत आजमाने को कहा। मैं भी उनके साथ लंदन गया। मैं सौभाग्यशाली रहा कि मेरा न सिर्फ चयन हुआ, बल्कि फ्रेंच न जानने के बावजूद पेरिस में महान वास्तुविद ली कोर्बुजिए के साथ काम करने का मुझे अवसर मिला।
महान वास्तुविदों के साथ काम किया

ली कोर्बुजिए की तमाम परियोजनाओं का जिम्मा लेकर मैं 1954 में भारत वापस लौटा, जिनमें अहमदाबाद की मिल ओनर्स एसोसिएशन बिल्डिंग और शोधन हाउस समेत चंडीगढ़ की कुछ परियोजनाएं शामिल थीं। अगले कुछ वर्षों में मुझे मशहूर अमेरिकी वास्तुविद लुइस कैह्न के सहायक के तौर पर एक दशक से ज्यादा वक्त तक काम करने का सौभाग्य मिला। मैंने उनके साथ मिलकर आईआईएम, अहमदाबाद के निर्माण में अपना योगदान दिया। ‘वास्तुशिल्प’ नाम से मैंने 1956 में अपना खुद का काम शुरू किया। मेरा काम चल निकला और बहुत जल्द ही मैंने पांच साझेदारों और साठ से ज्यादा कर्मचारियों की मदद से सौ से ज्यादा परियोजनाएं पूरी कीं।

पर्यावरण प्रेमी हूं
मैं पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील हूं, जिसका प्रभाव मेरे काम में दिखता है। अपने दफ्तर ‘संगत’ के निर्माण में मैंने अपशिष्ट पदार्थों का प्रयोग किया है। मैंने कोशिश की है कि भवन प्राकृतिक रूप से वातानुकूलित रहे और कुदरती रोशनी का अधिकाधिक इस्तेमाल हो। मुझे पर्यावरण सम्मत काम करने के लिए कई तरह के प्रयोग करने पड़े। जो लोग मुझे जानते हैं, उन्हें पता है कि मुझे ऐसे काम का कोई पूर्वाभास नहीं था। ‘संगत’ बनने के बाद, जो यहां आता है, उसके लिए यह किसी संस्कृति, कला और स्थिरता के अभयारण्य से कम नहीं है।

नियमों को हमेशा लचीला रखा
मुझे लगता है कि नियमों का बहुत सौम्य दृष्टिकोण होना चाहिए, क्योंकि जब नियम पारदर्शी और सच्चे होते हैं, तो उनकी कोई सीमा नहीं होती है और वे सार्वभौमिक बन जाते हैं। रचनात्मकता बढ़ाने के लिए वास्तुकला के नियमों में मैंने यही अनुसरण करने की कोशिश की है।

-प्रित्जकर प्राइज पाने वाले पहले भारतीय वास्तुविद के साक्षात्कारों पर आधारित।

English News

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com