इन 5 सवालों के जवाब से पता चलेगा नोटबंदी पास हुई या फेल?

नोटबंदी की आंकड़ों वाली सच्चाई का खुलासा केन्द्रीय रिजर्व बैंक ने बीते हफ्ते अपनी वार्षिक रिपोर्ट के जरिए करते हुए देश की सवा सौ करोड़ से अधिक जनता को बता दिया है कि 99.3 फीसदी प्रतिबंधित करेंसी बैंकों में पहुंच चुकी है. लेकिन यह खुलासा अभी भी नोटबंदी का रिपोर्ट कार्ड तैयार करने के लिए पर्याप्त नहीं है.

इंडिया टुडे हिंदी के संपादक अंशुमान तिवारी का दावा है कि नोटबंदी पास हुई या फेल यह तय करने के लिए अब बेहद जरूरी है कि केन्द्र सरकार अपने आंकड़ों को देश के सामने लाए जिससे ऐसे पांच सवालों का जवाब मिले और नोटबंदी की कतार में खड़े हुए आखिरी नागरिक को पता चल सके कि नोटबंदी पास हुई या फेल?

जनधन की जांच?

नोटबंदी का ऐलान 8 नवंबर 2016 को किया गया और महज 15 दिनों के अंदर देश के सामने चौकानें वाला तथ्य सामने आया कि केन्द्र सरकार के जनधन खातों का इस्तेमाल नोटबंदी के प्रकोप से बचने के लिए किया जा रहा है. इस तथ्य के आते ही केन्द्रीय रिजर्व बैंक ने जनधन खातों में जमा करने की सीमा 50,000 रुपये निर्धारित कर दी और खातों में जमा हो रहे बेहिसाब नकदी पर जांच बैठा दी गई.

गौरतलब है कि नोटबंदी के बाद जनधन खातों की संख्या में बड़ा इजाफा हुआ. कुल जनधन खातों का 80 फीसदी खाता केन्द्र सरकार के बैंकों में है. नोटबंदी के बाद पहले महीने में ही इन खातों में कुल जमा 456 अरब से उछलकर 746 अरब पर पहुंच गया. क्या अब इन खातों की जांच रिपोर्ट जनता के सामने लाने की जरूरत नहीं है?

सरकारी विभागों की नोटबदली?

नोटबंदी के ऐलान के बाद केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और देशभर में सरकारी कंपनियों पर नोटबंदी के प्रतिबंध काम नहीं कर रहे थे. वहीं कई सरकारी सेवाओं को भी नोटबंदी के दौर में नकदी लेने की पूरी इजाजत थी. सरकारी कंपनियों के पास बड़ी मात्रा में कारोबारी नकदी मौजूद रहती है और उनकी यह लेनदेन गैरसरकारी उपक्रमों से होती है. वहीं कई ऐसे सरकारी विभाग हैं जो प्रतिदिन राजस्व एकत्र करने के लिए नकदी ग्रहण करने में सबसे अग्रणी विभाग हैं.

क्या देश को अब यह पता नहीं चलना चाहिए कि नोटबंदी के दौरान सरकारी विभागों और कंपनियों में नकदी का संचार किस तरह रहा और इन विभागों के जरिए सरकारी खजानों में कितनी प्रतिबंधित करेंसी वापस लौटी है?

कॉरपोरेट खातों की नोटबंदी

नोटबंदी के ऐलान के बाद देश की बड़ी-बड़ी कंपनियों और बड़े कारोबारियों ने अपने कारोबारी खातों (करेंट अकाउंट) के जरिए कितनी बड़ी संख्या में प्रतिबंधित करेंसी को बैंक में पहुंचाने का काम किया है. गौरतलब है कि बैंकों में करोड़ों की संख्या में खुले कारोबारियों के करेंट अकाउंट (चालू खाता) का मकसद कारोबारी सुगमता के लिए नकद लेने और देने का प्रावधान करते हैं. कारोबारियों को मिली इस सुविधा का नोटबंदी के दौर में कैसा इस्तेमाल किया गया की कोई सटीक जानकारी सरकार अथवा बैंकों के जरिए नहीं की गई है.

हालांकि केन्द्र सरकार ने नोटबंदी के बाद कई जांच के हवाले से बड़ी मात्रा में शेल कंपनियों का खुलासा किया. सरकार ने यह भी माना कि इन शेल कंपनियों के जरिए बड़ी मात्रा में मनीनॉन्डरिंग की जा रही थी. लिहाजा अब देश को इंतजार कारोबारियों के खातों से नकदी को बैंकों में वापस के खेल का वास्तविक आंकड़ा देखने का है.

राजनीतिक दलों की लेनदेन

देश में कालेधन और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए बनी अबतक के सभी आयोगों का मानना है कि इस समस्या के केन्द्र में राजनीतिक दलों की अहम भूमिका रहती है. वहीं नोटबंदी के ऐलान के बाद का सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इस दौर में देश के राजनीतिक दलों पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया था. वहीं नोटबंदी के बाद कुछ अफवाहों को दूर करने के लिए केन्द्र सरकार ने साफ ऐलान किया था कि राजनीतिक दलों के खातों की किसी तरह की कोई जांच नहीं की जाएगी.

ऐसी स्थिति में अब नोटबंदी की रिपोर्ट तैयार करने के लिए क्या यह जरूरी नहीं कि देश को पता चले कि उनके राजनीतिक दलों ने कितनी बड़ी मात्रा में प्रतिबंधित करेंसी को बैंक में पहुंचाने का काम किया और उसके ऐवज में नई करेंसी प्राप्त की.

बैंकों की बैलेंसशीट?

नोटबंदी की प्रक्रिया जिस एक संस्था के सहारे चलाई गई वह है देश के दर्जनों सरकारी बैंक, निजी बैंक कोऑपरेटिव बैंक इत्यादि. रिजर्व बैंक ने प्रतिबंधित करेंसी को जमा करने और नई करेंसी का संचार करने के लिए इन बैंकों समेत जिन संस्थाओं को दायित्व दिया उनपर प्रक्रिया के दौरान सवाल खड़े हुए. ये सवाल इतने गंभीर थे कि इन बैंकों के कुछ कर्मचारियों समेत बैंकों के नियामक रिजर्व बैंक के कुछ अधिकारियों के खिलाफ कदम उठाए गए. लेकिन अभी तक लोगों को बैंकों की बैलेंसशीट की जांच रिपोर्ट नहीं सौंपी गई है जिससे यह पर्दा उठ सके कि कालेधल और भ्रष्टाचार के खिलाफ इस तथाकथिक कदम में उनकी क्या भूमिका रही है.

ये पांच सवाल सरकार की आलोचना के लिए नहीं बल्कि नागरिकों के उस मौलिक अधिकार के लिए है जिसकी रक्षा करने का दायित्व समय-समय पर नागरिक नई-नई सरकारों को देते हैं.

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