‘पहाड़ी पहाड़ी मत बोलो….मैं देहरादून वाला हूं….’

उत्तराखंड के लोकप्रिय गायक गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी हास्य शैली में पेश अपनी एक रचना में कहते हैं, “पहाड़ी-पहाड़ी मत बोलो… मैं देहरादून वाला हूं.”

'पहाड़ी पहाड़ी मत बोलो....मैं देहरादून वाला हूं....'

इस गीत के माध्यम से इशारा वो दरअसल उस रुझान की ओर कर रहे हैं जो देहरादून जैसे शहरों की चमकदमक और भव्यता के प्रति युवाओं में बढ़ रही है और पहाड़ी इलाक़ों के अधिकांश युवा देहरादून समेत मैदानों का रुख़ कर रहे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत के मुताबिक, “उत्तराखंड बेसिकली एक पहाड़ी राज्य था, आर्थिक और भौगोलिक कारण तो थे ही लेकिन एक सांस्कृतिक पहचान का भी सवाल बड़ा था. इसीलिए तो पहाड़ों में उद्वेलित हो गए थे लोग कि हमारी एक पहचान बनी रहे. लेकिन अब इसका पहाड़ी स्वरूप खत्म हो रह है, लोग सब मैदान में चले आए.”

2011 के जनसंख्या आंकड़े बताते हैं कि राज्य के करीब 17 हज़ार गांवों में से एक हज़ार से ज़्यादा गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं. 400 गांवों में दस से कम की आबादी रह गई है. 2013 की भीषण प्राकृतिक आपदा ने तो इस प्रक्रिया को और तेज़ कर दिया है और पिछले तीन साल में और गांव खाली हुए हैं.

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हाल के अनुमान ये हैं कि ऐसे गांवों की संख्या साढ़े तीन हज़ार पहुंच चुकी है, जहां बहुत कम लोग रह गए हैं या वे बिल्कुल खाली हो गए हैं. पलायन की तीव्र रफ़्तार का अंदाज़ा इसी से लगता है कि आज जब राज्य के चौथे विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं तो ऐसे में कई पहाड़ी गांवों में मतदाता ही नहीं हैं.

एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक कुमाऊं के चंपावत ज़िले के 37 गांवों में कोई युवा वोटर ही नहीं है. सारे वोटर 60 साल की उम्र के ऊपर के हैं. और ये बुज़ुर्ग आबादी भी गिनी चुनी है. एक गांव में बामुश्किल 60-70 की आबादी रह गई है. अनुमान है कि पिछले 16 वर्षों में क़रीब 32 लाख लोगों ने अपना मूल निवास छोड़ा है.

युवा वोटरों की किल्लत से जूझ रहे गांवों के बनिस्बत शहरों में युवा वोटरों की संख्या बढ़ती जा रही है. इस समय 75 लाख मतदाताओं में से 56 लाख ऐसे वोटर हैं जिनकी उम्र 50 साल से कम है. इनमें से क़रीब 21 लाख मतदाता, 20-29 साल के हैं. जबकि 18 लाख वोटर 30-39 साल के हैं.

साफ़ है कि युवा आबादी गांवों से कमोबेश निकल चुकी है. बेहतर शिक्षा, बेहतर रोजगार और बेहतर जीवन स्थितियों के लिए उनका शहरी और साधन संपन्न इलाकों की ओर रुख़ करना लाज़िमी है. पहाड़ों पर फिर कौन रहेगा.

देहरादून में अध्यापक लोकेश कुमार कहते हैं, “पहाड़ों को सुगम बनाया जाता, ऐसी सुविधा और साधन विकसित किए जाते कि लोग पहाड़ों में रहने से न हिचकते, अपने बच्चों को भी वहीं पढ़ाते, तो ऐसा तो किसी ने कुछ किया नहीं. जो है देहरादून में है तो लोग भी क्या करेंगे. यहीं तो आएंगे.”

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आम जनता ही नहीं पलायन तो नेताओं का भी हुआ है.

जयसिंह रावत कहते हैं, “बड़े-बड़े नेता नीचे खिसक के आ रहे हैं. कोई कोटद्वार से लड़ रहा है, डोईवाला से लड़ रहा है, हरिद्वार से लड़ रहा है. हरीश रावत जी अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ छोड़कर हरिद्वार से लड़ रहे हैं. वही हाल निशंक जी का है, वही खंडूरी जी का है, वही यशपाल आर्य जी का है… तमाम जितने भी ये ‘जी’ हैं… बड़े बड़े नेता हैं… मैदान में आकर बस गए हैं…. यहीं अपनी धूनी रमानी शुरू कर दी है.”

पलायन और रोजगार, कांग्रेस और बीजेपी के चुनावी घोषणपत्रों के प्रमुख हिस्सा रहे हैं लेकिन इसे लेकर कोई ठोस नीति पिछले 16 साल में नहीं बनी है. वैसे सरकार के पास भी अपनी पीठ थपथपाने के लिए आंकड़ों की कमी नहीं है.

उत्तराखंड के आर्थिक पिछड़ेपन को लेकर विरोधियों की तीखी आलोचना के जवाब में मुख्मंत्री हरीश रावत कहते हैं, “उत्तराखंड में प्रति व्यक्ति आय एक लाख 64 हज़ार हो गई है. 16.5% के हिसाब से हम औद्योगिक सेक्टर में वृद्धि कर रहे हैं, 12.5% से सर्विस सेक्टर में और 5.5% की दर से कृषि सेक्टर में वृद्धि कर रहे हैं.”

लेकिन इन आंकड़ों में पहाड़ी भूभाग के विकास की तस्वीर नहीं पता चलती. 70 सीटों वाली राज्य विधानसभा में राज्य के नौ पर्वतीय जिलों के पास 34 सीटें हैं. उधर, राज्य के चार मैदानी जिलों के पास 36 सीटे हैं. क्या ये राज्य के पर्वतीय भूगोल के सिकुड़ना नहीं कहलाएगा?

जवाब में जयसिंह रावत कहते हैं, “पहाड़ की राजनैतिक शक्ति क्षीण होती जा रही है. ध्येय था कि पहाड़ी राज्य बनेगा, हिमालयी राज्य बनेगा. किसका हिमालयी राज्य, ये तो देहरादून का राज्य हो गया, हरिद्वार का राज्य हो गया ये.”

तो इस राजनैतिक शक्ति को कैसे फिर से हासिल किया जा सकता है. क्या कांग्रेस और बीजेपी के अलावा राजनैतिक विकल्पों का निर्माण होना चाहिए.

चर्चित युवा वाम नेता और इन चुनावों में सीपीआईएमएल के उम्मीदवार इंद्रेश मैखुरी कहते हैं, “इसलिए हम लोग इस चुनाव में हैं कि विधानसभा के भीतर जनता का स्वर भी सुनाई दे. सिर्फ़ सत्ता का और सरकारों की अदलाबदली का स्वर नहीं बल्कि ऐसा विपक्ष जो जनविरोधी सत्ता के ख़िलाफ़ लड़ेगा, उसका भी स्वर सुनाई दे, इसके लिए हम लड़ रहे हैं.”

उत्तराखंड के जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ ने व्यापक जन-संघर्ष और उसके बरक्स उभर रहे क्षेत्रवादी संकुचित नज़रिए को लेकर अपनी एक रचना के ज़रिए टिप्पणी की थी.

“रजधानी अब तक लटकी पर/ मानसिक सुई थी जहां रुकी/ गढ-कुमौ पहाड़ी-मैदानी/ वो सुई वहीं पर अटकी है/ यों बाहर जो है सो है पर/ भीतरी घाव गहराते हैं/ आंखों से लहू रुलाते हैं/ सच पूछो तो उन भोलीभाली आंखों का/ सपना बिखर गया/ ये राज्य बेचारा देहरा-दिल्ली एक्सप्रेस बन कर ठहर गया.”

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