रावण की रिहाई बीजेपी का दांव या मजबूरी, 2019 में किसे मिलेगा फायदा?

भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण को 16 महीने के बाद जेल से रिहा कर दिया गया है. रावण की रिहाई ऐसे समय हो रही है जब दो महीने के बाद तीन प्रमुख राज्यों के विधानसभा और अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं. यही वजह है कि इसे ‘राजनीतिक रिहाई’ तौर पर देखा जा रहा है.

रावण की रिहाई का फैसले को एक तरफ जहां बीजेपी का दांव माना जा रहा है. वहीं, दूसरी ओर इसे दलितों के बढ़ते दबाव में लिया गया मजबूरी का फैसला माना जा रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि रावण की रिहाई से किसे राजनीतिक फायदा मिलेगा?

बता दें कि भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण और उनके दो दलित साथी को साल 2017 में सहारनपुर में दलितों और ठाकुरों के बीच हुई जातीय हिंसा फैलाने के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत जेल भेजा गया था. रावण के साथ जेल में बंद दो अन्य साथी सोनू और शिवकुमार को गुरुवार रात 2:30 बजे जेल से रिहा किया गया.

प्रमुख सचिव गृह अरविंद कुमार ने बताया कि चंद्रशेखर उर्फ रावण को रिहा करने का आदेश सहारनपुर के जिलाधिकारी को गुरुवार को ही भेज दिया गया था. रिहाई का फैसला उनकी मां के प्रार्थना पत्र पर लिया गया है. चंद्रशेखर के जेल में बंद रहने की अवधि 1 नवंबर 2018 तक थी.

हालांकि रावण की रिहाई की पठकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी. सहारनपुर जातीय हिंसा मामले में तीन दलित और तीन राजपूत गिरफ्तार हुए थे. इन सभी पर रासुका लगा था. पिछले दिनों राजपूत समुदाय के लोग हाईकोर्ट में जरिए बाहर आए हैं. ऐसे में चंद्रशेखर रावण और उनके साथ बंद दो दलितों को रिहा का बीजेपी सरकार पर दबाव माना जा रहा है.

दो महीने के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव हैं. इन तीनों बीजेपी शासित राज्य में दलित समुदाय की अच्छी खासी भागेदारी है. दलित चिंतक और रावण की रिहाई के आंदोलन में जुड़े रहे प्रोफेसर रतनलाल कहते हैं कि सरकार पर दबाव था और चुनाव सिर पर हैं. दलितों में आक्रोश लगातार बढ़ रहा था. ऐसे में चंद्रशेखर रावण को रिहा करना बीजेपी की मजबूरी बन गई थी.

रतन लाल कहते हैं कि हमें नहीं लगता है कि वो किसी भी पार्टी को ज्वाइन करेंगे. भीम आर्मी के जरिए उन्हें बुनियादी मुद्दों और दलित समुदाय के हक को लेकर संघर्ष करना चाहिए. इसके अलावा बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने के लिए उन्हें कोशिश करनी चाहिए.

रावण जेल से बाहर आते ही अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं. जेल से बाहर अपने समर्थकों की भीड़ देख रावण गदगद हो गए और उन्होंने बीजेपी पर जमकर हमले किए. रावण ने आजतक संवाददाता अाशुतोष मिश्रा से बातचीत में कहा कि चुनाव लड़ने का कोई इरादा नहीं है. महागठबंधन हुआ तो बीजेपी के खिलाफ प्रचार करूंगा. बीजेपी संविधान विरोधी है इसलिए 2019 के लोकसभा चुनाव में BJP को हराने के लिए संघर्ष करूगा.

रावण ने कहा कि मायावती मेरी बुआ समान हैं. मतदाताओं को एकजुट करने की कोशिश करूंगा. भीम आर्मी के संगठन की मजबूती का काम करूंगा आगे बड़ी चुनौती बाकी है. BJP को उखाड़ फेंकने के लिए हर कोशिश करूंगा. इन्होंने बाबा साहब के संविधान का अपमान किया है.

सहारनपुर ने गुलजार कहते हैं कि दलित समुदाय भले ही वो भीम आर्मी से यहां जुड़ा हुआ हो, लेकिन वे वोट बसपा को ही देता है. जिले से बसपा नेताओं और कार्यकर्ताओं ने उनके हर मौके पर साथ दिए हैं.

रावण के रिहा होते ही कांग्रेस नेता इमरान मसूद उनसे मिलने पहुंचे. इमरान 2017 की घटना के बाद से रावण के समर्थन में हैं, ऐसे में उनके कांग्रेस में शामिल होने के कयास लगा जाने लगे हैं. सूत्रों की माने तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के ऑफिस से लोग भी चंद्रशेखर रावण के संपर्क में है.

कांग्रेस दलित नेता जिग्नेश मेवाणी के जरिए भी रावण को अपने पाले में लाने की कोशिश में जुटी है. जिग्नेश रावण की रिहाई को लेकर लगातार आंदोलन कर रहे थे. पिछले दिनों उन्होंने वाराणसी के एक सम्मलेन में कहा कि मायावती उनकी बड़ी बहन हैं. वह और चंद्रशेखर मायावती के दाएं और बाएं हाथ हैं.

भीम आर्मी से दलितों का जुड़ाव बसपा में घबराहट पैदा हो गई थी. यही वजह थी कि मायावती चंद्रशेखर रावण को आरएसएस और बीजेपी का एजेंट बता दिया था. इसके बावजूद पिछले दिनों लखनऊ में हुए बीएसपी के मंडलीय सम्मेलन में भी पार्टी के नेताओं ने चंद्रशेखर से बहनजी के साथ आने की अपील कर दी थी.

बीजेपी दलित विरोधी आरोपों से लगातार जूझ रही है. वहीं, उत्तर प्रदेश की राजनीति समीकरण बदल रहे हैं. विपक्ष एकजुट होने की कोशिश में हैं. ऐसे रावण को रासूका के तहत जेल में रखने से दलितों के बीच आक्रोश बढ़ रहा था. ऐसे में बीजेपी का रावण को रिहा करने को एक बड़ा दांव माना जा रहा है. बीजेपी चंद्रशेखर का इस्तेमाल मायावती के खिलाफ कर सकती है.

राजनीतिक विश्लेषक सुनील सुमन कहते हैं कि रावण की रिहाई पूरी तरह से राजनीतिक रूप से लिया गया फैसला है. बीजेपी इस फैसले के जरिए दलितों के वोट हासिल करना चाहती है, लेकिन इसमें उसे बहुत ज्यादा कामयाबी नहीं मिलेगी.

उन्होंने कहा कि मायावती उन्हें आरएसएस का एजेंट होने का आरोप लगा चुकी हैं, ऐसे रावण अब क्या राजनीतिक कदम उठाते हैं. इस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा. सुमन कहते है कि दलित समुदाय में राजनीतिक बदलाव आए हैं. युवा आंदोलनकारी उभरे हैं और उन्हें समाज का समर्थन भी मिल रहा है.

बता दें कि सहारनपुर में दलितों की अच्छी खासी तादाद के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश एक समय बसपा का गढ़ माना जाता रहा है. कांशीराम और मायावती दोनों सहारनपुर से चुनाव लड़ चुके हैं. बसपा इस सीट को किसी भी सूरत में जीतना चाहती है. इसीलिए महागठबंधन भी होता है तो बसपा इस सीट को अपने पास रखने को कोशिश करेगी.

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