रविवार को चीन ने अपना पहला स्वदेश निर्मित विमानवाहक युद्धपोत परीक्षण के लिए समुद्र में उतारा। अपनी सेना को मजबूत बनाने और विवादित समुद्री इलाकों पर पैठ बनाने की दिशा में इसे चीन का बड़ा कदम माना जा रहा है। पचास हजार टन वजनी यह युद्धपोत चीन के जहाजी बेड़े का दूसरा युद्धपोत है। फिलहाल इसे कोई नाम नहीं दिया गया है। विशेषज्ञों के मुताबिक इससे एशिया में भले ही चीन की ताकत बढ़ जाए लेकिन इस युद्धपोत की तकनीक अमेरिका के मुकाबले काफी पिछड़ी हुई है। इसके चीनी सेना में 2020 तक शामिल होने की उम्मीद है। पिछले युद्धपोत से बेहतर - चीन के पहले युद्धपोत लियाओनिंग के मुकाबले यह युद्धपोत बड़ा और अधिक भारी है, जिससे यह अधिक विमानों को ले जाने में सक्षम है। - हालांकि इसका आधारभूत डिजायन लियाओनिंग से ही लिया गया है, जिसमें विमान के उड़ान भरने के लिए विशेष स्की-जंप पट्टी शामिल है। - यह पोत संचालित होने के लिए परमाणु प्रपल्शन तकनीक के बजाय पारंपरिक तकनीक का इस्तेमाल करता है। - दोनों युद्धपोतों में एक बड़ा फर्क यह है कि लियाओनिंग को प्रशिक्षण पोत के तौर पर तैयार किया गया था, जबकि यह पोत युद्ध अभियानों के लिए तैयार किया गया है। - इसके जरिए चीन दुनिया के सर्वक्षेष्ठ नौसैनिक क्षमताओं वाले देशों के समकक्ष आ गया है, जिसमें रूस, फ्रांस, अमेरिका और ब्रिटेन शामिल हैं। नौसेना को धार देने में जुटा ड्रैगन - शंघाई में चीन ने तीसरे विमानवाहक युद्धपोत पर काम शुरू कर दिया है। यह परमाणु ऊर्जा संचालित होगा। 2030 तक चीन अपने बेड़े में चार विमानवाहक युद्धपोत शामिल करना चाहता है, जिससे वह दक्षिण चीन सागर में अपना दबदबा कायम कर सके। चीन ने एजे-15 नामक नया जेट फाइटर विमान भी तैयार कर लिया है, जो उसके विमानवाहक युद्धपोतों के डेक से संचालित हो सकेगा। भारत के लिए चुनौती - चीन जिस गति से अपनी सैन्य क्षमताओं में इजाफा कर रहा है वह भारत के लिए चिंता की बात है। हमारे पास सिर्फ 44,400 टन वजनी आईएनएस विक्रमादित्य विमानवाहक युद्धपोत सेवा में है। इसे देश ने रूस से 2013 में 2.33 अरब डॉलर में खरीदा था। 40 हजार टन वजनी स्वदेशी निर्मित आईएसएन विक्रांत कोचीन शिपयार्ड में बन रहा है। इसका परीक्षण अक्टूबर, 2020 में शुरू होगा और यह पूरी संचालित 2023 तक हो पाएगा। 65 हजार टन वजनी तीसरे विमानवाहक युद्धपोत की परियोजना अधर में है। भारत को नौसैन्य क्षमता में तेजी से इजाफा करना होगा वरना दक्षिण चीन सागर और भारत की पूर्वी समुद्र सीमा पर चीन अपनी गतिविधियां बढ़ाकर भारत के लिए परेशानी खड़ी कर सकता है। अमेरिकी तकनीक से पीछे - वर्तमान समय में अमेरिका के पास 11 परमाणु ऊर्जा संचालित युद्धपोत हैं, जिसमें से हर एक का वजन लगभग एक लाख टन है। सभी पर 80-90 विमान रखे जा सकते हैं। यह संख्या दुनिया के किसी भी अन्य देश के मुकाबले कहीं अधिक है। अमेरिकी पोत में कैटापुल्ट तकनीक मौजूद है, जिसमें भाप संचालित पिस्टन से जुड़ा एक गियर पोत के डेक से उड़ान भरने वाले विमानों को गति प्रदान करता है। इस तकनीक से लांच होने वाले विमान अधिक ईंधन और हथियारों के साथ हवा में उड़ान भर पाते हैं। यह तकनीक अमेरिकी विमानों को चीनी विमानों से बेहतर बनाती है।

China : समुद्र में उतरा पहला स्वदेशी विमानवाहक युद्धपोत, ये है खासियत

रविवार को चीन ने अपना पहला स्वदेश निर्मित विमानवाहक युद्धपोत परीक्षण के लिए समुद्र में उतारा। अपनी सेना को मजबूत बनाने और विवादित समुद्री इलाकों पर पैठ बनाने की दिशा में इसे चीन का बड़ा कदम माना जा रहा है। पचास हजार टन वजनी यह युद्धपोत चीन के जहाजी बेड़े का दूसरा युद्धपोत है। फिलहाल इसे कोई नाम नहीं दिया गया है। विशेषज्ञों के मुताबिक इससे एशिया में भले ही चीन की ताकत बढ़ जाए लेकिन इस युद्धपोत की तकनीक अमेरिका के मुकाबले काफी पिछड़ी हुई है। इसके चीनी सेना में 2020 तक शामिल होने की उम्मीद है।रविवार को चीन ने अपना पहला स्वदेश निर्मित विमानवाहक युद्धपोत परीक्षण के लिए समुद्र में उतारा। अपनी सेना को मजबूत बनाने और विवादित समुद्री इलाकों पर पैठ बनाने की दिशा में इसे चीन का बड़ा कदम माना जा रहा है। पचास हजार टन वजनी यह युद्धपोत चीन के जहाजी बेड़े का दूसरा युद्धपोत है। फिलहाल इसे कोई नाम नहीं दिया गया है। विशेषज्ञों के मुताबिक इससे एशिया में भले ही चीन की ताकत बढ़ जाए लेकिन इस युद्धपोत की तकनीक अमेरिका के मुकाबले काफी पिछड़ी हुई है। इसके चीनी सेना में 2020 तक शामिल होने की उम्मीद है।  पिछले युद्धपोत से बेहतर -   चीन के पहले युद्धपोत लियाओनिंग के मुकाबले यह युद्धपोत बड़ा और अधिक भारी है, जिससे यह अधिक विमानों को ले जाने में सक्षम है।  - हालांकि इसका आधारभूत डिजायन लियाओनिंग से ही लिया गया है, जिसमें विमान के उड़ान भरने के लिए विशेष स्की-जंप पट्टी शामिल है।  - यह पोत संचालित होने के लिए परमाणु प्रपल्शन तकनीक के बजाय पारंपरिक तकनीक का इस्तेमाल करता है।  - दोनों युद्धपोतों में एक बड़ा फर्क यह है कि लियाओनिंग को प्रशिक्षण पोत के तौर पर तैयार किया गया था, जबकि यह पोत युद्ध अभियानों के लिए तैयार किया गया है।  - इसके जरिए चीन दुनिया के सर्वक्षेष्ठ नौसैनिक क्षमताओं वाले देशों के समकक्ष आ गया है, जिसमें रूस, फ्रांस, अमेरिका और ब्रिटेन शामिल हैं।    नौसेना को धार देने में जुटा ड्रैगन -   शंघाई में चीन ने तीसरे विमानवाहक युद्धपोत पर काम शुरू कर दिया है। यह परमाणु ऊर्जा संचालित होगा। 2030 तक चीन अपने बेड़े में चार विमानवाहक युद्धपोत शामिल करना चाहता है, जिससे वह दक्षिण चीन सागर में अपना दबदबा कायम कर सके। चीन ने एजे-15 नामक नया जेट फाइटर विमान भी तैयार कर लिया है, जो उसके विमानवाहक युद्धपोतों के डेक से संचालित हो सकेगा।    भारत के लिए चुनौती -   चीन जिस गति से अपनी सैन्य क्षमताओं में इजाफा कर रहा है वह भारत के लिए चिंता की बात है। हमारे पास सिर्फ 44,400 टन वजनी आईएनएस विक्रमादित्य विमानवाहक युद्धपोत सेवा में है। इसे देश ने रूस से 2013 में 2.33 अरब डॉलर में खरीदा था। 40 हजार टन वजनी स्वदेशी निर्मित आईएसएन विक्रांत कोचीन शिपयार्ड में बन रहा है। इसका परीक्षण अक्टूबर, 2020 में शुरू होगा और यह पूरी संचालित 2023 तक हो पाएगा।  65 हजार टन वजनी तीसरे विमानवाहक युद्धपोत की परियोजना अधर में है। भारत को नौसैन्य क्षमता में तेजी से इजाफा करना होगा वरना दक्षिण चीन सागर और भारत की पूर्वी समुद्र सीमा पर चीन अपनी गतिविधियां बढ़ाकर भारत के लिए परेशानी खड़ी कर सकता है।  अमेरिकी तकनीक से पीछे -   वर्तमान समय में अमेरिका के पास 11 परमाणु ऊर्जा संचालित युद्धपोत हैं, जिसमें से हर एक का वजन लगभग एक लाख टन है। सभी पर 80-90 विमान रखे जा सकते हैं। यह संख्या दुनिया के किसी भी अन्य देश के मुकाबले कहीं अधिक है।  अमेरिकी पोत में कैटापुल्ट तकनीक मौजूद है, जिसमें भाप संचालित पिस्टन से जुड़ा एक गियर पोत के डेक से उड़ान भरने वाले विमानों को गति प्रदान करता है। इस तकनीक से लांच होने वाले विमान अधिक ईंधन और हथियारों के साथ हवा में उड़ान भर पाते हैं। यह तकनीक अमेरिकी विमानों को चीनी विमानों से बेहतर बनाती है।

पिछले युद्धपोत से बेहतर –

चीन के पहले युद्धपोत लियाओनिंग के मुकाबले यह युद्धपोत बड़ा और अधिक भारी है, जिससे यह अधिक विमानों को ले जाने में सक्षम है।

– हालांकि इसका आधारभूत डिजायन लियाओनिंग से ही लिया गया है, जिसमें विमान के उड़ान भरने के लिए विशेष स्की-जंप पट्टी शामिल है।

– यह पोत संचालित होने के लिए परमाणु प्रपल्शन तकनीक के बजाय पारंपरिक तकनीक का इस्तेमाल करता है।

– दोनों युद्धपोतों में एक बड़ा फर्क यह है कि लियाओनिंग को प्रशिक्षण पोत के तौर पर तैयार किया गया था, जबकि यह पोत युद्ध अभियानों के लिए तैयार किया गया है।

– इसके जरिए चीन दुनिया के सर्वक्षेष्ठ नौसैनिक क्षमताओं वाले देशों के समकक्ष आ गया है, जिसमें रूस, फ्रांस, अमेरिका और ब्रिटेन शामिल हैं।

नौसेना को धार देने में जुटा ड्रैगन –

शंघाई में चीन ने तीसरे विमानवाहक युद्धपोत पर काम शुरू कर दिया है। यह परमाणु ऊर्जा संचालित होगा। 2030 तक चीन अपने बेड़े में चार विमानवाहक युद्धपोत शामिल करना चाहता है, जिससे वह दक्षिण चीन सागर में अपना दबदबा कायम कर सके। चीन ने एजे-15 नामक नया जेट फाइटर विमान भी तैयार कर लिया है, जो उसके विमानवाहक युद्धपोतों के डेक से संचालित हो सकेगा।

भारत के लिए चुनौती –

चीन जिस गति से अपनी सैन्य क्षमताओं में इजाफा कर रहा है वह भारत के लिए चिंता की बात है। हमारे पास सिर्फ 44,400 टन वजनी आईएनएस विक्रमादित्य विमानवाहक युद्धपोत सेवा में है। इसे देश ने रूस से 2013 में 2.33 अरब डॉलर में खरीदा था। 40 हजार टन वजनी स्वदेशी निर्मित आईएसएन विक्रांत कोचीन शिपयार्ड में बन रहा है। इसका परीक्षण अक्टूबर, 2020 में शुरू होगा और यह पूरी संचालित 2023 तक हो पाएगा।

65 हजार टन वजनी तीसरे विमानवाहक युद्धपोत की परियोजना अधर में है। भारत को नौसैन्य क्षमता में तेजी से इजाफा करना होगा वरना दक्षिण चीन सागर और भारत की पूर्वी समुद्र सीमा पर चीन अपनी गतिविधियां बढ़ाकर भारत के लिए परेशानी खड़ी कर सकता है।

अमेरिकी तकनीक से पीछे –

वर्तमान समय में अमेरिका के पास 11 परमाणु ऊर्जा संचालित युद्धपोत हैं, जिसमें से हर एक का वजन लगभग एक लाख टन है। सभी पर 80-90 विमान रखे जा सकते हैं। यह संख्या दुनिया के किसी भी अन्य देश के मुकाबले कहीं अधिक है।

अमेरिकी पोत में कैटापुल्ट तकनीक मौजूद है, जिसमें भाप संचालित पिस्टन से जुड़ा एक गियर पोत के डेक से उड़ान भरने वाले विमानों को गति प्रदान करता है। इस तकनीक से लांच होने वाले विमान अधिक ईंधन और हथियारों के साथ हवा में उड़ान भर पाते हैं। यह तकनीक अमेरिकी विमानों को चीनी विमानों से बेहतर बनाती है।

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