दुनिया का कोई भी धर्म हो, क्या ईश्वर अपनी बनाई सृष्टि के जीवों की बलि लेकर खुश होगा? शायद नहीं! फिर मंदिरों में, परंपराओं के नाम पर, विशाल धार्मिक उत्सवों में बलि क्यों दी जाती है?

यह एक ऐसा प्रश्न है जो सदियों से लोगों के जेहन में है, लेकिन इसे नकारते हुए कई जगहों पर पशु बलि प्रथा बे-रोक-टोक जारी है। पश्चिम बंगाल के कोलकाता में स्थित काली मंदिर में भी बलि दी जाती है? यह सिलसिला उस समय से जारी है जब रामकृष्ण परमहंस काली मंदिर में उपासना करते थे।
आध्यात्मिक गुरु सद्गुरु जग्गी वासुदेव कहते हैं, ‘रामकृष्ण पशु-बलि की अनुमति कैसे दे सकते थे? क्योंकि अनुमति देना या न देना उनके हाथ में नहीं था, फिर भी वह इसका विरोध कर सकते थे, जो उन्होंने नहीं किया। क्योंकि काली को बलि पसंद है।’
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दरअसल होता यह है कि हम अलग-अलग मनोकामनाओं के लिए अलग-अलग तरह के देवी-देवता पूजते हैं। हमने उन्हें जीवित रखने और आगे बनाए रखने के लिए कुछ विशेष ध्वनियां उत्पन्न कीं और उनके साथ कुछ विधि-विधानों को जोड़ा। बिना बलि के कुछ मंदिरों की ऊर्जा घट जाएगी यह सोच कर पशु बलि प्रथा भी शुरू की।
ऐसी मान्यता आप मान बैठे हैं कि काली मंदिर में अगर आप बलि देना छोड़ देते हैं, तो आपको काली की जरूरत नहीं है क्योंकि कुछ समय बाद उनकी शक्ति घटती जाएगी और फिर वह नष्ट हो जाएंगी, क्योंकि उन्हें इसी तरह बनाया गया है।
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