सात दशक बाद भी दिल्ली अधूरी है। पूर्ण राज्य का दर्जा संभव नहीं हो पाया है, जबकि मसला आजादी के बाद ही उठ गया था। इसके लिए आंदोलन तक चले। 17 मार्च 1952 से 12 फरवरी 1955 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश कहा करते थे कि दिल्ली में मैं अच्छे तरीके से सरकार चला रहा था, लेकिन प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने मुझे मुख्यमंत्री के पद से इसलिए हटा दिया था क्योंकि मैं दिल्ली सरकार के लिए अधिक शक्तियों की मांग करने लगा था।
इस पर केंद्र सरकार ने मई 1990 में संसद में बिल पेश किया। इसके बाद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (जीएनसीटीडी) एक्ट, 1991 पास हुआ। इसमें चुनी हुई सरकार के अधिकारों की चर्चा थी। इसके तहत 1993 के विधानसभा चुनाव हुए और भाजपा के मदनलाल खुराना दिल्ली के मुख्यमंत्री बने, लेकिन विधानसभा को सांकेतिक शक्तियां ही मिलीं। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना तो दूर की कौड़ी ही बनी रही।
केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री और दिल्ली में शीला दीक्षित मुख्यमंत्री रहीं। बिना पूर्ण राज्य के दिल्ली सरकार का काम बिना बाधा के चलता रहा।
2014 में आप के सत्ता पर काबिज होने के बाद केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच पहले जैसा तालमेल खत्म हो गया।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अधिनियम, 2023 के तहत जमीन, सेवा, पुलिस और पब्लिक ऑर्डर पर फैसला लेने का अधिकार सिर्फ एलजी के पास है।
पूर्ण राज्य का दर्जा न देने के पीछे की बड़ी दलील
दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है। यहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री रहते हैं। देश की संसद है। पूरी दुनिया के राजनयिक और दूतावास दिल्ली में मौजूद हैं। ऐसी स्थिति में अगर पूर्ण राज्य का दर्जा देने से दिल्ली को कानून व व्यवस्था समेत पुलिस का नियंत्रण भी देना होगा। जमीन व नौकरशाही पर नियंत्रण भी प्रदेश सरकार का रहेगा। इससे केंद्र की राज्य सरकार पर निर्भरता बढ़ेगी। विधायी व कानूनी के साथ मसला सियासी भी है। माना जाता है कि पूर्ण राज्य की सूरत में अगर केंद्र व दिल्ली की सरकार में टकराव होगा तो कानून व्यवस्था का बड़ा संकट पैदा होगा। इससे निपटना दोनों सरकारों के लिए आसान नहीं रहेगा।