रविवार (30 August) को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में बिहार के पश्चिम चंपारण के थारू समुदाय के प्रकृति प्रेम और इस प्रेम के कारण लगाए जाने वाले लॉकडाउन की चर्चा की। यह चर्चा पहले भी हो चुकी है कि देश-दुनिया के लिए लॉकडाउन का अनुभव भले ही नया हो, लेकिन बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के थारू समाज के लिए यह सदियों पुराना है। प्रकृति की पूजा करनेवाला यह समाज सदियों से लॉकडाउन की परंपरा को अपनाए हुए है। पेड़-पौधों की सुरक्षा के लिए थारू समाज के लोग हर साल सावन माह के अंतिम सप्ताह में 60 घंटे का लॉकडाउन करते हैं। स्थानीय भाषा में इसे ‘बरना’ कहा जाता है। क्योंकि वनवासयों की दिनचर्या और जीवकोपार्जन प्राकृतिक संसाधनाें पर ही निर्भर रहता है। इसलिए बरना के दौरान लॉकडाउन की घोषण कर घर से कोई बाहर नहीं निकलता। इस समय एक तिनका तक तोड़ने की मनाही होती है।
एक भी नन्हा सा पौधा भी खत्म ना हो जाएं इसलिए मनाते हैं बरना
पश्चिम चंपारण जिले के 214 राजस्व गांवों में 2.57 लाख थारू रहते हैं। उनका जीवन प्रकृति के रंग में रंगा है। इसकी रक्षा के लिए वे हर साल ‘बरना’ मनाते हैं। इस दौरान लोग घरों में बंद हो जाते हैं। गांव से कोई भी व्यक्ति बाहर नहीं जाता और न ही प्रवेश की अनुमति होती है। समाज के लोग मानते हैं कि बरसात में प्रकृति की देवी पौधे सृजित करती हैं। इसलिए गलती से भी धरती पर पांव पड़ने से कोई पौधा समाप्त न हो जाए, इसका पूरा ख्याल रखा जाता है।
बैठक में तय होती ‘बरना’ की तिथि
हर गांव में बैठक कर ‘बरना’ की तिथि तय की जाती है। जनसहयोग से राशि जुटाकर अराध्य देव बरखान (पीपल का पेड़, एक तरह से प्रकृति का प्रतिरूप) के पूजन की तैयारी होती है। जिस दिन से 60 घंटे का ‘बरना’ शुरू होता है, उस दिन सुबह गांव के हर घर से कम से कम एक सदस्य पूजन स्थल पर पहुंचता है। महिलाएं हलवा-पूड़ी का भोग लगाकर प्रकृति की देवी से समुदाय की सुरक्षा की मन्नत मांगती हैं। इसके बाद युवा गांव के सीमा क्षेत्र में भ्रमण कर करआव (जंगल से लाई गई जड़ी-बूटी) जलाकर वातावरण को शुद्ध करते हैं। थारुओं के गांव तरूअनवा, देवरिया, बरवा कला, भड़छी, लौकरिया, छत्रौल, संतपुर, सोहरिया, चंपापुर, महुआवा, बेरई, कअहरवा, बेलहवा, अमवा, भेलाही, बलुआ, बनकटवा आदि में इसकी तैयारी चल रही है।
पहले ही कर लिया जाता भोजन का इंतजाम
दिग्विजय राणा, जंगली महतो व सुनील कुमार बताते हैं कि इस आयोजन से पहले दातून से लेकर भोजन और जानवरों के लिए चारे का इंतजाम कर लिया जाता है। यह पेड़-पौधों की सुरक्षा को समर्पित त्योहार है। विधिपूर्वक पूजन से बरखान प्रसन्न होते हैंं। ‘बरना’ की समाप्ति के बाद हर गांव में पारंपरिक नृत्य व गीत-संगीत का कार्यक्रम होता है। भारतीय थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष दीपनारायण प्रसाद कहते हैं कि सभ्यता और संस्कृति ही हमारी पहचान है। ‘बरना’ के दौरान एक तिनका तोड़ने पर भी मनाही होती। सभी लोग अपने घर में रहते हैं। ऐसा करने से अराध्य देव प्रसन्न होकर हरियाली का वरदान देते हैं।
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