अगर आप भी दशानन जैसा अतुल बल पाना चाहते हैं, तो हर सोमवार को रावण रचित शिव तांडव स्त्रोत का पाठ करें..
एक बार दशानन को अपने शौर्य पर संदेह हुआ। उस समय नारद जी ने उन्हें बल प्रदर्शन की सलाह दी। दशानन रावण सोचने लगे कि अगर कैलाश को लंका लेकर आ जाएं तो समस्त ब्रह्माण्ड में मेरी कीर्ति का गुणगान होगा। तत्पश्चात रावण कैलाश जा पहुंचें।
सोमवार का दिन देवों के देव महादेव को समर्पित होता है। समुद्र मंथन के दौरान निकले विष को महादेव ने धारण किया है। इसके लिए उन्हें देवाधिदेव महादेव कहा जाता है। धार्मिक मान्यता है कि शिवजी की पूजा करने से जातक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। लंकाधिपति रावण ने भी कठिन भक्ति कर देवों के देव महादेव को प्रसन्न कर अतुल बल प्राप्त किया था। हालांकि, एक बार दशानन को अपने शौर्य पर संदेह हुआ। उस समय नारद जी ने उन्हें बल प्रदर्शन की सलाह दी। दशानन रावण सोचने लगे कि अगर कैलाश को लंका लेकर आ जाएं, तो समस्त ब्रह्माण्ड में मेरी कीर्ति का गुणगान होगा। तत्पश्चात, रावण कैलाश जा पहुंचें और पर्वत को उठाने की कोशिश करने लगे। उस समय मां सती ने रावण को श्राप दिया कि राक्षसों वाली प्रवृति है तुम्हारी। इसके लिए आज से राक्षसों में तेरी गिनती होगी। वहीं, रावण के अभिमान को देख शिवजी ने थोड़ा सा बल कैलाश पर्वत पर बढ़ा दिया। इससे रावण के हाथ पर्वत के नीचे दबने लगा। इसके चलते कुछ देर तक रावण वहीं मूर्छित पड़ा रहा। जब होश आया, तो रावण को अहसास हुआ कि उसने बड़ी गलती कर दी। उस समय दशानन रावण ने रचित शिव तांडव का पाठ कर देवों के देव महादेव को प्रसन्न किया। शिव तांडव सुन महादेव प्रसन्न हुए। तब रावण को चंद्रहास तलवार देकर महादेव बोले-जब तक तुम्हारे हाथ में यह तलवार रहेगा। तुम्हें युद्ध में कोई नहीं हरा पाएगा। इस वरदान को पाकर रावण को अतुल बल की प्राप्ति हुई। अगर आप भी दशानन जैसा अतुल बल पाना चाहते हैं, तो हर सोमवार को रावण रचित शिव तांडव स्त्रोत का पाठ करें-
शिव तांडव स्रोत
जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम् ॥१॥
जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥२॥
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।
मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥
सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिंगभा निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
स्मरांतकं पुरातकं भवांतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः सम प्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥१२॥
कदा निलिम्प-निर्झरीनिकुंज-कोटरे वसन् विमुक्त-दुर्मतिः सदा शिरःस्थ-मंजलिं वहन्।
विमुक्त-लोल-लोचनो ललाम-भाललग्नकः शिवेति मंत्र-मुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥१६॥
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मिं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥