आज से 20 वर्ष पहले 11 सितंबर को जब अल कायदा आतंकियों ने विमानों को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से टकरा कर ध्वस्त कर दिया था तो पूरा विश्व थर्रा गया था। वह भयावह मंजर दुनिया अब भी भूली नहीं है। चिंता की बात यह है कि इस हमले को अंजाम देने वाले अल कायदा आतंकियों के मददगार तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता पर फिर से काबिज हो गए हैं। इसके चलते विश्व पर आतंक का साया फिर से मंडराने लगा है। 9/11 हमले की साजिश जिस ओसामा बिन लादेन ने रची थी, वह तब चर्चा में आया था, जब सोवियत संघ की सेनाओं को अफगानिस्तान से बाहर खदेड़ने के लिए अमेरिका ने अफगान मुजाहिदीनों को हथियार सौंपे थे। करीब दस साल तक अफगानिस्तान में रहने के बाद सोवियत सेनाएं तो लौट गईं, लेकिन वहां आतंक का राज कायम हो गया। इसे स्थापित किया पाकिस्तान की ओर से पाले-पोसे गए तालिबान ने।
1996 में अफगानिस्तान पर काबिज तालिबान सरकार उतनी ही कट्टरपंथी थी, जितनी कि आज है। 9/11 हमले के बाद अमेरिका ने 2001 में तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता से तो खदेड़ दिया, लेकिन वह उन्हें पूरी तौर पर परास्त नहीं कर सका। पिछले 20 सालों में तालिबान अमेरिका और नाटो सेनाओं से लड़ता रहा और यह दुष्प्रचारित करता रहा कि पश्चिमी दुनिया ने इस्लाम के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है। इसी तरह का दुष्प्रचार अल कायदा, इस्लामिक स्टेट, बोको हराम जैसे अन्य आतंकी संगठन भी करते हैं।
भले ही अमेरिका ने अफगानिस्तान से भागकर पाकिस्तान में जा छिपे ओसामा बिन लादेन को मार गिराया हो, लेकिन वह अल कायदा की विचारधारा पर अंकुश नहीं लगा सका। जो विचारधारा अल कायदा की है, वही अन्य आतंकी संगठनों और यहां तक कि तालिबान की भी है। इसी कारण यह आशंका गहरा गई है कि अफगानिस्तान में तालिबान के संरक्षण में किस्म-किस्म के आतंकी संगठन फलेंगे-फूलेंगे। तालिबान की ओर से अन्य आतंकी संगठनों को पनाह दिए जाने की आशंका के कारण ही अमेरिका और अन्य देश तालिबान की अंतरिम सरकार को मान्यता देने में हिचक रहे हैं। अफगानिस्तान की धरती से नए सिरे से आतंकवाद पनप सकता है, इस खतरे को बीते दिनों ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में भी उठाया गया। इस सम्मेलन में इस पर जोर दिया गया कि अफगानिस्तान की जमीन का आतंकवाद के लिए इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। इस सम्मेलन में भाग ले रहे रूस ने अफगानिस्तान के हालात के लिए अमेरिका को कोसा, लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि अफगानिस्तान को गर्त में धकेलने का काम तो सबसे पहले उसी ने तब किया था, जब उसने अपने विस्तारवादी एजेंडे के तहत वहां अपनी सेनाएं भेज दी थीं। यदि उसने अफगानिस्तान में दखल नहीं दिया होता तो शायद यह देश आज आतंक का गढ़ नहीं बना होता।
पाकिस्तान यही काम कश्मीर में एक लंबे समय से करता चला आ रहा है। भारत को आशंका है कि वह कश्मीर में दखल देने के लिए तालिबान का भी सहारा ले सकता है। भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि पाकिस्तान ने ही तालिबान को संरक्षण दिया है और अफगानिस्तान की अंतरिम सरकार में वैसे अनेक तालिबान नेता अहम पदों पर काबिज हुए हैं, जिन्होंने पाकिस्तान में शरण ले रखी थी। इनमें उस हक्कानी नेटवर्क के सरगना भी हैं, जो आत्मघाती हमलों के लिए कुख्यात थे। ऐसा ही एक हमला भारतीय दूतावास पर भी किया गया था। भारत इससे भी परिचित है कि जैश और लश्कर जैसे आतंकी संगठन वही सोच रखते हैं, जो तालिबान रखता है। जैश और लश्कर सरीखे पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के तालिबान से गहरे संबंध भी हैं।
मौजूदा हालात में विश्व समुदाय को यह देखना होगा कि अफगान नागरिकों के हितों पर कुठाराघात न होने पाए। पिछले 20 वर्षो में अफगान नागरिकों को खुली हवा में सांस लेने की आदत हो गई है। वहां की महिलाएं और युवा एक अलग नजरिये से जीवन जीने के आदी से हो गए थे। उनके लिए अब मुसीबत खड़ी हो गई है। हजारों लोग अफगानिस्तान से पलायन कर चुके हैं। आगे यह पलायन और तेज हो सकता है। जो भी हो, भारत को इस भरोसे नहीं रहना चाहिए कि ब्रिक्स देशों के सम्मेलन की ओर से पारित घोषणा पत्र में चीन और रूस ने इस पर हामी भरी कि अफगानिस्तान संकट का शांतिपूर्ण समाधान निकाला जाना चाहिए। भारत कम से कम चीन पर तो बिल्कुल भी भरोसा नहीं कर सकता।
इससे इन्कार नहीं कि मोदी सरकार बनने के बाद भारत आतंकवाद पर लगाम लगाने में सक्षम साबित हुआ है, लेकिन अफगानिस्तान के बदलते हालात भारत की चिंता बढ़ाने वाले हैं। चिंता का कारण तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव है। इस प्रभाव की विश्व समुदाय भी अनदेखी नहीं कर सकता। यदि विश्व समुदाय को तालिबान को नियंत्रित करना है तो उसे पाकिस्तान पर दबाव बनाना होगा। दुनिया को पाकिस्तान के इस छलावे में नहीं आना चाहिए कि वह खुद आतंकवाद से पीड़ित है अथवा अफगानिस्तान के हालात से उसे भी खतरा है। सच यह है कि तालिबान उसकी मदद से ही अफगानिस्तान पर काबिज हुए हैं और उनकी अंतरिम सरकार उसके ही इशारे पर चलने वाली है।