सरकारी अधिकारियों की कारगुजारियों की वजह से 1976 से 1994 तक दस्तावेजों में मृत माने गए आजमगढ़ के लाल बिहारी ‘मृतक’ को उनके द्वारा झेली गई परेशानियों और संत्रास के लिए मुआवजा क्यों नहीं मिलना चाहिए? यूपी सरकार को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ को इसका जवाब देना होगा। इसके लिए मुख्य सचिव सहित आजमगढ़ के डीएम को 13 मार्च तक का समय दिया गया है।
लाल बिहारी, जिनका उपनाम ही ‘मृतक’ हो चुका है, ने साल 2005 में मुआवजे के लिए याचिका दायर की थी। लाल बिहारी के पिता की मौत के बाद इकलौता बेटा होने के नाते परिवार की अचल संपत्ति के राजस्व रिकॉर्ड्स में उनका नाम चढ़ाया गया। वे बनारसी सिल्क साड़ी बनाने वाले मजदूर थे, प्रगति करके खुद की साड़ी बनाने की फैक्ट्री खोल ली।
याची के अनुसार, उनका काम अच्छा चल रहा था, जिसे आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने 1976 में बैंक से कारोबारी लोन के लिए आवेदन किया। इसके लिए उन्हें अपनी संपत्ति जमानत रखनी थी। साथ ही अपने गांव खलीलाबाद के अधिकारियों से जाति व आय प्रमाण पत्र बनवाना था।
लाल बिहारी 30 जुलाई 1976 को लेखपाल के पास पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि वे मर चुके हैं। इसकी वजह से उनकी समस्त संपत्ति उनके चचेरे भाइयों पतिराम, बाबूराम और बलिराम को ट्रांसफर कर दी गई है। खतौनी में दर्ज एंट्री दिखाई गई, जिसमें लाल बिहारी को मृतक लिखा गया था।
याची के अनुसार, वे कई अधिकारियों से मिले। 1984 में उनके मामले को जगदंबिका पाल ने विधानसभा तक में उठाया, लेकिन कोई एक्शन नहीं लिया गया। अंतत: कानूनी लड़ाई लड़कर उन्होंने खुद को जिंदा साबित करवाया। 25 जून 1994 को आजमगढ़ के डीएम ने उन्हें जिंदा होने का प्रमाण पत्र दिया और 30 जून को जिले के मुख्य राजस्व अधिकारी ने खतौनी में जिंदा लिखने के आदेश दिए। इसके एक महीने बाद नायब तहसीलदार ने दस्तावेजों में उन्हें जिंदा कर दिया। उनकी संपत्ति उन्हें वापस मिल गई।
लेकिन मिली तबाही
लाल बिहारी के अनुसार कानूनी लड़ाई के दौरान उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी बिगड़ी कि उनकी बनारसी सिल्क साड़ी की फैक्ट्री बंद हो गई। 18 साल वे ‘भूत’ की तरह रहे। उनके कोई मानवाधिकार नहीं थे। न उन्हें बैंक लोन देता था, न कोई सरकारी काम होता।
…और तहसीलदार का हलफनामा, ‘मुआवजा कैसा, वापस जिंदा तो कर दिया’
याचिका पर जवाबी हलफनामा मांगने पर आजमगढ़ के तहसीलदार ने अप्रैल 2005 में बताया था कि लाल बिहारी द्वारा मांगा गया मुआवजा उसे नहीं दिया जा सकता। उन्हाेंने यह माना कि सरकारी अधिकारियों की गलती की वजह से लाल बिहारी को मृतक बताया गया, लेकिन जब शिकायत मिली तो 1976 की गलती को आजमगढ़ के डीएम ने 1994 में सुधार दिया। सरकार दोषी अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी कर रही है।
याची ने कहा, भूत और भिखारी बनाकर रख दिया गया
याची ने प्रतिउत्तर हलफनामा दिया जिसमें कहा कि वे 18 साल मृतक माने गए। उनकी संपत्तियां उनसे छीन ली गईं। वे गहरे मानसिक तनाव और अवसाद में रहे। सामाजिक रूप से उन्हें अस्वीकार कर दिया गया, उन्हें ‘भूत’ कहकर बुलाया गया। दो वक्त की रोटी के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ता। वे एक भिखारी बनकर रह गए। उनकी पत्नी और बेटा व बेटी ने भी विपत्तियां झेलीं। उन्हें इन सबका मुआवजा मिलना चाहिए।
डीएम बताएं दोषी अधिकारियों के नाम
याचिका पर सुनवाई के बाद जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस अनंत कुमार ने कहा कि आजमगढ़ के डीएम बताएं कि क्या लाल बिहारी को उनकी समस्त संपत्ति पर कब्जा दिलवा दिया गया है? ऐसा नहीं है तो पुलिस की मदद लेकर कब्जा दिलवाएं। साथ ही उन सभी अधिकारियों के नाम बताएं जिन्हाेंने लाल बिहारी को मृतक बना दिया। अगर इससे संबंधित दस्तावेज नहीं मिलते हैं तो रिकॉर्ड के कस्टोडियन अधिकारियों पर न केवल प्रशासनिक, बल्कि आपराधिक प्रावधानों के तहत एक्शन लें।
सरकारी अधिकारी जनता के सेवक
हाईकोर्ट ने सख्त लहजे में कहा कि लोक सेवक सरकारी दस्तावेजों और रिकॉर्ड्स में हेरफेर नहीं कर सकते। न ही वे कोर्ट से तथ्यों को छिपा सकते हैं। मौजूदा मामले में सरकारी एजेंसियों ने लाल बिहारी को मृतक साबित किया था। सरकारी अधिकारी जनता के सेवक हैं। सरकारी एजेंसियां अपने काम में सजग रहें तो लाल बिहारी जैसे मामले न हों।
कैसे नजर अंदाज कर दें कि सरकार नजर अंदाज करती रही?
हाईकोर्ट ने कहा कि वह याचिका में आई इस बात को नजर अंदाज नहीं कर सकता कि एक आदमी को मृत घोषित कर दिया गया। यदि ऐसा किया तो नागरिक के जीवन के अधिकार को नजर अंदाज करने जैसा होगा। हाईकोर्ट यह भी नजरअंदाज नहीं कर सकता कि 1976 से 1994 तक करीब 18 वर्ष सरकारी एजेंसियों ने कोई एक्शन नहीं लिया। लाल बिहारी का नाम तक लाल बिहारी ‘मृतक’ हो गया। न्याय पाने के लिए आए व्यक्ति को उसका जूता कितना काट रहा है, यह उसके जूते को पहनकर ही महसूस किया जा सकता है।
यूपी ही नहीं, देश की बदनामी करवाई अधिकारियों ने
हाईकोर्ट ने सरकारी अधिकारियों के रवैये पर कड़ी टिप्पणी में कहा कि उनकी आचरण की वजह से ऐसी घटना हुई, जिसे अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में जगह मिली। इसकी वजह से यूपी के साथ साथ देश की प्रतिष्ठा को नुकसान हुआ। अधिकारियों का यह कारनामा पीड़ित को मुआवजा पाने के लिए पात्र बनाता है। लाल बिहारी ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष खो दिए हैं, जिसकी वजह से उसके परिवार की भी दुर्गति हुई।
निर्णय
हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि किसी आदमी ने नहीं, बल्कि सरकार ने एक जीवित आदमी को मृत साबित किया है, यह संवेदनशील मामला है। उस पर मानसिक संत्रास, अवसाद और परेशानियां गुजरीं, और उसने व उसके परिवार ने अपमान सहा। वहीं प्रदेश सरकार जैसा बर्ताव व भेदभाव पीड़ित के साथ कर रही है, वह कोर्ट की अंतरात्मा को हिला देता है। इन हालात को देखते हुए मुख्य सचिव, डीएम व संबंधित अधिकारी हलफनामा दायर कर बताएं कि पीड़ित को मुआवजा क्यों नहीं मिलना चाहिए? अदालत अधिवक्ता ललित शुक्ला को मामले में न्याय मित्र भी बनाती है। मामले की अगली सुनवाई 13 मार्च को होगी।
खूब प्रसिद्ध हुआ यह ‘भूत’
लाल बिहारी के बारे में अंतरराष्ट्रीय अखबारों और पत्रिकाओं में खबरें प्रकाशित हुईं। उन्हें 18 साल भूत बने रहकर जीवित होने पर 2003 का आईजी नोबेल (नोबेल का पैरोडी अवॉर्ड जो अनूठे व अजीब वैज्ञानिक कार्यों के लिए दिया जाता है) भी दिया गया।