श्रीनगर के शेरे कश्मीर क्रिकेट स्टेडियम में खड़े चिनार आज भी गवाह हैं, उस पल के जिसने आतंकवाद से लहुलुहान वादी से उठती बारूद की दुर्गंध को हटाते हुए जन्नत में फिर से खुशहाली और भाईचारे की खुशबू को बिखेरने की शुरुआत की थी।
इस पल ने न सिर्फ कश्मीर की सियासत को बदला, बल्कि भारत-पाकिस्तान के आपसी संबंधों की जमीन तैयार की और इंसानियत, जम्हूरियत व कश्मीरियत की बात होने लगी। यह दिन था 18 अप्रैल 2003 का। इसकी शुरुआत की थी तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने।
यह दिन एतिहासिक था, है और रहेगा, क्योंकि 1987 के बाद किसी प्रधानमंत्री ने श्रीनगर शहर में किसी जनसभा को संबोधित किया था। इतना ही नहीं आतंकियों व अलगाववादियों के बहिष्कार के फरमान को नकारते हुए 40 हजार से ज्यादा लोग क्रिकेट स्टेडियम में अटल बिहारी वाजपेयी को सुनने को आए थे। यह एक रिकार्ड है, जो आज भी कायम है।
आज भी कश्मीर मुद्दे पर किसी फामरूले की जब बात होती है तो मुख्यधारा से लेकर अलगाववादी खेमा तक अटल के सिद्धांत इंसानियत, जम्हूरियत व कश्मीरियत पर अमल की बात करते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने भी 15 अगस्त को लालकिले से कश्मीर मुद्दे पर इसी नुस्खे का जिक्र किया। इस सभा में वाजपेयी ने कहा था, दोस्त बदले जा सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं।
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