उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बुरी शिकस्त झेलने वाली बसपा प्रमुख मायावती भले ही पार्टी की हार का ठीकरा ईवीएम में हेरा-फेरी पर फोड़ रही हों, लेकिन इसकी वजह कुछ और ही है.
इतना ही नहीं लगातार तीसरी हार (2012 का विधानसभा चुनाव और 2014 का लोक सभा चुनाव) के बाद मायावती के सियासी करियर पर भी खतरा मंडरा रहा है. यही नहीं पार्टी को एकजुट करने में भी अब मायावती को काफी मशक्कत करनी पड़ेगी. साथ ही पार्टी की हार के संबंधित कुछ अहम कारणों पर भी ध्यान देना होगा.
1. खोखला संगठन
अगर वोट परसेंट की बात करें तो इस चुनाव में भी बसपा को करीब 22 फ़ीसदी वोट मिले, लेकिन सीटें महज 19 ही मिलीं. बीएसपी को मिली इस करारी शिकस्त का सबसे बड़ा और पहला कारण बीएसपी का खोखला संगठन है.
एक तरफ आजादी के बाद पहली बार यूपी की 325 सीटें जीतकर ऐतिहासिक बहुमत हासिल करने वाली भाजपा की जीत के पीछे सिर्फ पार्टी का मजबूत संगठन ही नहीं बल्कि भाजपा के युवा, महिला जैसे कई अन्य संगठनों के साथ विश्व के सबसे प्रभावी संगठनों में से एक आरएसएस का भी मुख्य योगदान रहा.
कभी आरएसएस की तरह बसपा को जमीनी स्तर पर मजबूत करने वाले वामसेफ संगठन को पार्टी की उपेक्षा ने काफी पहले ही खत्म कर दिया है. बीएसपी में युवा व महिला जैसे हर वर्ग में अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले कई अन्य महत्वपूर्ण सहयोगी संगठनों का कभी गठन ही नहीं किया गया.
2. शीर्ष नेतृत्व का जनता से सीधा संपर्क न होना
बीएसपी की हार का यह दूसरा सबसे अहम कारण हैं. दरअसल, एक ओर जहां भाजपा, सपा और कांग्रेस जैसे प्रमुख विरोधी दलों का शीर्ष नेतृत्व सीधे संवाद, पत्राचार व सोशल मीडिया जैसे माध्यम से आम जनता से सीधे संपर्क में रहता है.
बसपा में इसका आभाव देखने को मिलता है. बसपा शीर्ष नेतृत्व कभी भी सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं के समाधान के लिए सीधे आम जनता की राय और मंशा जानने की कोशिश ही नहीं करता.
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3. दूसरी कतार के नेताओं का अभाव
बीएसपी की हार का तीसरा सबसे अहम कारण पार्टी में दूसरी कतार के जनाधार वाले प्रभावी नेताओं की कमी है. मायावती के अलावा बसपा में सिर्फ ब्राम्हण नेता के तौर पर बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चन्द्र मिश्रा व मुस्लिम नेता के रूप में नसीमुद्दीन सिद्दीकी ही हैं. लेकिन इनका न तो कोई जनाधार है, और न ही अपनी क्षेत्रीय जनता मे ही कोई खास पकड है.
इसका ताजा उदाहरण मौजूदा विधानसभा चुनाव ही है. बीजेपी की आंधी के आगे न तो सतीश चन्द्र मिश्रा ही अपना गढ़ बचा पाए और न ही 105 मुस्लिमों को टिकट दिलाकर इस बार दलित मुस्लिम फॉर्मूले पर बसपा की सरकार बनाने का सपना दिखाने वाले नसीमुद्दीन सिद्दीकी ही अपनी लाज बचा पाए.
4. राजनीतिक समीकरणों की समझ में चूक
बसपा की हार का सबसे अहम कारण इस बार पार्टी की ओर से यूपी के सियासी समीकरणों की समझ में चूक है. दलित और मुस्लिम फॉर्मूले के आधार पर चुनाव लड़ना सबसे बड़ी भूल माना जा रहा है.
इस बेमेल फॉर्मूले के कारण खुद को दलितों का मसीहा कहने वाली मायावती ने तो अपनी चुनावी रैलियों में सर्वाधिक दलितों के जुटने के बावजूद मुस्लिमों को तवज्जो देती रहीं. जिससे नाराज कुछ दलित वर्ग के लोग जहां बीजेपी मे चले गए, तो वहीं मुस्लिमों ने भी मायावती को कोई तवज्जो नहीं दी
5. बसपा में हर स्तर पर मौजूद संवादहीनता
बसपा में मौजूद हर स्तर की संवादहीनता को भी पार्टी के करारी शिकस्त का प्रमुख कारण माना जा रहा है. संचार क्रांति के इस युग में जहां अन्य समस्त दलों का शीर्ष नेतृत्व एक कॉल के जरिये बात या मुलाकात के लिए उपलब्ध हो जाता है, वहीं एकतरफा संवाद को प्रथमिकता देने वाली मायावती और बीएसपी के अन्य नेताओं से बात या मुलाकात करना या उन तक कोई संदेश पहुचाना आज भी एक एक टेढ़ी खीर है.
यहां तक बसपा के नेता पत्रकारों से भी सीधे बात नहीं कर सकते. इसी संवादहीनता के कारण न तो बसपा का शीर्ष नेतृत्व जमीनी हकीकत से रूबरू हो पाया और न ही बूथ स्तर पर बसपा को मजबूत करने वाले नेता, कार्यकर्ता या समर्थक ही अपनी बात शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचा पाए. नतीजा ये रहा कि बसपा का किला देखते ही देखते ढह गया.
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6. राजनैतिक कार्यकर्मों व आंदोलनों से दूरी
बसपा की हार का एक अहम कारण सर्वसमाज की बात करने वाली मायावती का राजनैतिक कार्यक्रमों और आंदोलनों से दूरी भी है. 2012 में मिली हार के बाद बसपा ने भाईचारा सम्मेलन के अलावा अपने संगठन को मजबूत करने के लिए कोई खास कार्यक्रम नहीं किया. मुख्य विपक्षी पार्टी होने के बावजूद उसने कभी जनता से उससे जुड़े किसी भी मुद्दे को लेकर सत्ताधारी सपा सरकार का सदन या सड़क पर उतरकर खुला विरोध नहीं किया.
जबकि बीजेपी लगातार जनता के मुद्दो को लेकर सत्ताधारी सपा सरकार का सदन से लेकर सड़क तक पुरजोर विरोध करती रही. इसी के जरिए खुद को यूपी की जनता का सबसे बड़ा हितैषी साबित कर आज यूपी की सत्ता मे काबिज हो गई.
7. प्रभावी चुनावी रणनीति का अभाव
यूपी विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही भले ही बीएसपी ने अपने सभी उम्मीदवारों के नाम घोषित कर खुद को चुनावी तैयारी में अव्वल साबित किया हो, लेकिन पार्टी ने इस बार चुनाव को जीतने के लिये कोई नीति व रणनीति बनाई ही नहीं. चुनाव से ठीक पहले दलितों और मुस्लिमों को पार्टी से जोड़ने के लिए किये गए पिछड़ा वर्ग और भाईचारा सम्मलेन से भी पार्टी को कोई खास फायदा नहीं हुआ.
8. जनता में विश्वास न जगा पाना
बीएसपी की हार का प्रमुख कारण बीएसपी की ओर से अपनी नीति व नियति के प्रति जनता में विश्वास न जगा पाना है. एक ओऱ जहां बीएसपी ने शुरूआती दौर में यूपी की जिस ध्वस्त कानून-व्यवस्था व माफिया राज के मुद्दे पर सपा सरकार को घेरा और फिर चुनावी फायदे के लिए मुख्तार अंसारी जैसे माफिया को अपने पार्टी में शामिल कराकर खुद इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली.
दूसरी ओर खुद को दलितों और गरीबों का मशीहा बताने वाली मायावती ने गरीब जनता से जुड़े मुख्य मुद्दे को दरकिनार कर उस नोटबंदी के मुद्दे को लेकर बीजेपी पर सबसे ज्यादा निशाना साधा, जिसे गरीब अपने हित में मान रहा था. कालेधन के नाम पर की गई नोटबंदी के जरिये बीजेपी द्वारा अमीरों को लाइन मे लगवा दिये जाने से गरीबों को मिली ख़ुशी को वह भांप नहीं पाईं. यही वजह रहा कि नोटबंदी का विरोध करने का दांव भी उल्टा पड़ा.
9. टिकट वितरण में पैसे लेने का आरोप
बीएसपी की हार का सबसे प्रमुख कारण में से एक सही टिकट वितरण न होना भी है, क्योंकि उम्मीदवारों के मुताबिक पार्टी ने हर बार की तरह इस बार भी प्रत्याशियों का चयन उनकी जनता में पहुंच या पहचान के आधार पर नहीं बल्कि पैसे के आधार पर किया.
इसके चलते कई जिताऊ उम्मीदवारों के या तो टिकट काट दिए गए या फिर स्वामी प्रसाद मौर्या जैसे बसपा के कई दिग्गज नेता टिकट बंटवारे से आहत होकर पार्टी छोड़ भाजपा में शामिल हो गए. इन बागियों ने इस चुनाव में बसपा के प्रत्याशियों को ही धूल चटाकर, अपने क्षेत्र में बसपा का सूपड़ा साफ कर दिया.
10. मीडिया प्रबंधन का अभाव व सोशल मीडिया से दूरी
कुशल मीडिया प्रबंधन का अभाव और आज के इस नए दौर में भी सोशल मीडिया से दूरी बीएसपी की हार का एक प्रमुख कारण माना जा रहा है. एक ओर जहां बीजेपी और उसके नेता अपनी एक खास टीम के जरिये एक सोची समझी नीति व रणनीति के तहत जनसभाओं व रोड शो जैसे पारम्परिक जनसंचार के माध्यमों को अपनाया, वहीं टीवी, रेडियो, न्यूजपेपर, न्यूजपोर्टल्स, फेसबुक, टि्वटर व व्हाट्सएप्प के जरिये अपने पार्टी के कार्यक्रमों व संदेश लगातार आम जनता तक पहुंचाकर खुद को यूपी की जनता का सबसे बड़ा हितैषी साबित किया. जबकि बीएसपी सुप्रीमो मायावती अपने पुराने ढर्रे के तहत सिर्फ जनसभाओं, प्रेसवार्ता और प्रेस रिलीज तक ही सीमित रह गई.