हिंदुस्तान के बहुत सारे शहरों और कस्बों की पहचान वहां की खाने-पीने की चीजों से जुड़ी है। लखनऊ के कबाब, हैदराबाद की बिरयानी, और जोधपुर के मिर्ची बड़ों का नाम सभी ने सुना है। दिलचस्प बात यह है कि छोटे-छोटे कस्बे भी अपने मिठाई या नमकीन पर कम फक्र नहीं करते। अल्मोड़ा, हिमालय की गोद में बसा एक जिला मुख्यालय है। यहां की जेल में कभी नेहरू बंदी रहे और यहीं से होते बापू कौसानी पहुंचे, जहां उन्होंने गीता की अनासक्ति योग नामक टीका लिखी। इनसे पहले विवेकानंद और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर भी यहां पहुंच चुके थे। पता नहीं इनमें किस-किस ने ‘बाल मिठाई’ का आनंद लिया होगा, जो यहां की सबसे मशहूर सौगात समझी जाती है।
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इसके आविष्कार की दावेदारी जोगालाल साह की है, जिन्होंने 19वीं सदी में कभी पड़ोस के गांवों में बने दानेदार खोए को मंदी आंच में भूनकर उसे ‘चॉकलेट’ का रंग दे दिया था। स्वाद कुछ-कुछ भिंड के जले दूध के पेड़े जैसा महसूस होता है, पर बाल मिठाई का आकार न तो पेड़े जैसा होता है न बर्फीनुमा। यह चार-पांच लंबी चौकोर नली की शक्ल में मिलती है और इसकी बाहरी सतह होमियोपैथी की दवाई सरीखी चीनी के दानों से सजी रहती है।
इनका कुरकुरापन इसके मुलायम आकर्षण को बढ़ाता है। खोए की ताजगी का पता बाल मिठाई की लचक से चलता है। दूधिया मिठास कुदरती ही काफी समझी जाती थी, पर कीमतें कम रखने के लिए आजकल चीनी खुले हाथों से मिलाई जाने लगी है, जिससे बाल मिठाई का असली मजा दुर्लभ होता जा रहा है। यह छेने की मिठाई से कहीं अधिक टिकाऊ होती है, इसलिए पारंपरिक रूप में प्रवासी पहाड़ियों और छुट्टियों में घर आने वाले फौजियों की पहली पसंद यह आसानी से बन सकी।
पिछली आधी सदी से जोगालाल साह वाली दुकान लगभग भुला दी गई है। वह मोटर सड़क से दूर अलग-थलग पड़ गई। बाल खरीदने के लिए खीमसिंह मोहन सिंह रौतेला की दुकान ज्यादा सुविधाजनक लगती थी। इस बात को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अपनी बाल मिठाई की गुणवत्ता को बरकरार रखने के मामले में रौतेला बंधु और उनका परिवार सजग रहे हैं। कुछ दशक बाद जब बाईपास के निर्माण ने इस दुकान को भी हाशिए पर पहुंचा दिया, तब शहर के बाहर लोधिया पर एक नई बस्ती गुलजार हो गई। एक कतार में दर्जन भर बाल मिठाई की दुकानें खुल गईं। इन सभी का कारोबार पनप रहा है, पर शौकीन जानकार अभी भी खीमसिंह मोहन सिंह की बाल को मुंह लगाते हैं।
आज नैनीताल, भुवाली, रानीखेत, बागेश्वर सभी जगह बाल मिठाई बनाई जाती है और बिकती भी है, पर इनकी गिनती अल्मोड़ा, तो दूर की बात है लोधिया के भी बाद होती है। पहाड़ी भोजन भटों का मानना है कि चालू हलवाई मैदानों से आयात किए खोए का इस्तेमाल करते हैं, जो शुद्ध पहाड़ी माल का मुकाबला नहीं कर सकता।
अपनी प्रतिष्ठा के बारे में खबरदार हलवाई न तो खोए के बारे में समझौता करते हैं और न ही घी की जगह वनस्पति को हाथ लगाते हैं। वह इस बात को भी समझते हैं कि दिखने में देहाती नजर आने वाली बाल कम नखरीली नहीं। भूनते वक्त धीरज धरने की दरकार होती है और फ्रिज में रखते ही सूख जाती है। एक बार विदेशी मेहमान ने चखी, तो उन्हें यह टॉफी और फज का मिश्रण लगी। बाल मिठाई की जुड़वा बहन है पत्ते में लिपटी सिंगौड़ी, जो भीमकाय पान की गिलौरी दिखती है।