श्रद्धा और आस्था की वजह से लोग गुरूद्वारे जाते हैं, तो कई गुरूद्वारे में मिलने वाले लंगर की वजह से भी श्रद्धा को अपना लेते हैं। अंजाने चेहरों के बीच गुरूद्वारे में मिलने वाली दाल का स्वाद कुछ ऐसा होता ही कि काके दा ढाबा और चड्ढा की रसोई भी फ़ेल हो जाये। गुरूद्वारे में सिर झुकाने के बाद दीवारों पर लगी इनफार्मेशन स्लेट तो आप सब ने पढ़ी होगी, पर क्या कभी आपको ये जानकारी मिली कि लंगरों का चलन कैसे शुरू हुआ? आइए ऐसे ही लंगर के बारे में जानें;
ऐतिहासिक कहानियों के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि एक बार सिखों के पहले गुरु नानक देव जी को उनके पिता ने व्यापार करने के लिए कुछ पैसे दिए, जिसे देकर उन्होंने कहा कि वो बाज़ार से सौदा करके कुछ प्रॉफिट कमा कर लाये। नानक देव जी इन पैसों को लेकर जा ही रहे थे कि उन्होंने कुछ भिखारियों और भूखों को देखा, उन्होंने वो पैसे भूखों को खिलाने में खर्च कर दिए और खाली हाथ घर लौट आये। नानक जी की इस हरकत से उनके पिता बहुत गुस्सा हुए, जिसकी सफ़ाई में नानक देव जी ने कहा कि सच्चा लाभ तो सेवा करने में है।
गुरु नानक देव जी द्वारा शुरू किये गए इस सेवा भाव को उनके बाद के सभी 9 गुरुओं ने बनाये रखा और लंगर जारी रहा। एक कहानी के अनुसार, बादशाह अकबर, लंगर से इतने प्रभावित थे कि एक बार वो खुद लंगर खाने पहुंचे और लोगों के बीच में बैठ कर खाना खाया।
सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी ने यहां तक कहा है कि लंगर में खाये बिना आप ईश्वर तक नहीं पहुंच सकते।
आज लगभग हर गुरुद्वारे में लंगर लगा कर लोगों की सेवा की जाती है, जिसमें लोग अपनी इच्छा से नि:स्वार्थ भाव से सेवा करते हैं।
गुरु नानक देव जी द्वारा शुरू की गई लंगर परम्परा क्योंकि सच्चा धर्म तो सेवा करने में है।