पहली बात: धर्मगुरु और सदगुरु में फर्क कर लेना । धर्मगुरु तो अक्सर थोथा होता है, जैसे पोप धर्मगुरु हैं । अगर पोप को धर्मगुरु कहते हो, तो जीसस को धर्मगुरु मत कहना । वह जीसस का अपमान हो जाएगा । जीसस के लिए सदगुरु शब्द उपयोग करो । पुरी के शंकराचार्य धर्मगुरु हैं, लेकिन आदि-शंकराचार्य को धर्मगुरु मत कहना; वे सदगुरु हैं । कबीर सदगुरु हैं, धर्मगुरु नहीं । धर्मगुरु पहले से चली आई परंपरा का हिस्सा होता है । सदगुरु एक नई परंपरा का जन्मदाता । धर्मगुरु की पुरानी साख होती है; उसकी दुकान पुरानी है; वह किसी पुरानी दुकान का हकदार है, चाहे उसकी अपनी कोई संपदा न भी हो, लेकिन बाजार में उसकी प्रतिष्ठा है ।
सदगुरु अपने पैरों पर खड़ा होता है; उसकी कोई पुरानी प्रतिष्ठा नहीं है इसलिए सदगुरु को कठिनाई होती है; उसे सब काम फिर से, नए सिरे से जमाना है । तो पहला तो फर्क यह समझ लो कि वे धर्मगुरु नहीं हैं और मजा यह है कि धर्मगुरु के पास धर्म होता ही नहीं; सिर्फ साख होती है । सदगुरु के पास धर्म होता है- साख नहीं होती । धर्मगुरु के पास तो व्यवस्था होती है, जमा हुआ संप्रदाय होता है, अनुयायी होते हैं । सदगुरु के पास कोई नहीं होता- सिर्फ परमात्मा होता है । बस, परमात्मा की संपत्ति से ही उसे काम शुरू करना पड़ता है । एक अनुभव की संपदा होती है । उसे खोजना पड़ता है । उसे शिष्य खोजने पड़ते हैं जो सीखने को तत्पर हों, जो पात्र हों, वे खोजने पड़ते हैं और स्वभावत: यह आसान नहीं है शिष्यों का मिलना, क्योंकि ये शिष्य किसी न किसी संप्रदाय का हिस्सा होते हैं ।
अब तुम यहां मेरे पास इकट्ठे हुए हो । कोई हिंदू है, कोई यहूदी है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई बुद्ध है, कोई सिख है । तुम किसी परंपरा से बंधे हो, किसी परंपरा में पैदा हुए हो । तुम्हें तुम्हारी परंपरा से निकालना अड़चन की बात है । तुम्हारा भी निकलना तुम्हें कठिनाई की बात मालूम होती है क्योंकि हजार न्यस्त स्वार्थ हैं । फिर तुम्हारे जीवन की सीमाएं हैं, अड़चनें-उलझनें हैं । नौकरी खो जाए; संबंध टूट जाएं; अड़चनें पैदा हों । घर में दु:ख-सुख होता है, तो समाज का साथ मिलता है; वह सब मिलना बंद हो जाए । इन सारी अड़चनों के कारण आदमी सदगुरु के साथ नहीं जा पाता । उसे धर्मगुरु के साथ ही खड़ा रहना पड़ता है ।
तो कबीर अपूर्व थे; लेकिन स्वभावत: तुलसीदास के साथ जितने लोग गए, उतने कबीरदास के साथ नहीं गए । तुलसीदास धर्मगुरु हैं; कबीर सदगुरु हैं । दोनों अनूठे हैं । जहां तक काव्य का संबंध है, साहित्य का संबंध है, तुलसीदास भी अनूठे हैं, जैसे कबीरदास अनूठे हैं मगर जहां तक अनुभव की संपदा का संबंध है, तुलसीदास परंपरागत हैं; कबीरदास क्रांतिकारी हैं । स्वभावत: तुलसीदास को ज्यादा प्रेमी मिल जाएंगे इसीलिए रामचरितमानस घर-घर पहुंच गई । कबीरदास के वचन घर-घर नहीं पहुंच सके । इतनों तक भी पहुंच सके-यह भी कम आश्चर्य नहीं है क्योंकि कबीरदास की बात तो बड़ी आग जैसी है । कबीर की चोट बड़ी सीधी है- सिर तोड़ । कबीर को झेलना आसान बात नहीं है । कुछ विरले हिम्मतवर लोग ही झेल पाएंगे । हालांकि कबीर जो बोलते हैं, वही वेद है, वही कुरान है मगर कबीर अपने गवाह खुद हैं, वेद से गवाही नहीं लेते । वह गवाही उधार हो जाएगी, झूठी हो जाएगी ।
अब दूसरी बात समझ लें: अगर संत लीक पर चलता हो, तो उसे ज्यादा शिष्य मिल जाएंगे । अगर संत सब लीक छोड़कर चलता हो, तो स्वभावत: कुछ विरले अभियानी ही उसके साथ हो पाएंगे । उसके साथ जाना खतरे से खाली नहीं है । उसके साथ जाना खतरनाक है । फिर कबीरदास जैसा अक्खड़ संत हुआ ही नहीं; दो टूक बात कह देनेवाला; एक वोट कबीर की झेल लोगे, तो जिंदगी भर याद रखोगे; भूले नहीं भूलेगा । सदगुरु और क्रांतिवादी! और फिर यह भी अड़चन थी । जैसा तुम पूछते हो कि जिनका एक पांव इस्लाम में और एक पांव हिंदू धर्म में था । तो ऐसा लगता है कि दो-दो धर्मों पर जिनका अड्डा था । तो दोनों धर्मों से उन्हें अनुयायी मिल जाने चाहिए थे । मिले भी; मगर बहुत थोड़े ।
कारण? हिंदुओं ने कहा कि यह मुसलमान है और मुसलमानों ने कहा कि यह हिंदू है । लोग अपने अंधकार को बचाने की सब तरफ से कोशिश करते हैं- जो भी बहाना मिल जाए इसलिए तुम पूछते ठीक हो कि कबीर का जितना प्रभाव होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ । लेकिन किसका कब हुआ? अगर उतना प्रभाव हो जाता, तो यह पृथ्वी और ही होती- स्वर्ग होती ।