1 मार्च 17….मैं रसोई में मलाई मथ रही थी, श्रीगुरु जी भी रसोई में थे…कल की बात मैंने आगे बढ़ाई…”तो आपको शिष्य क्यूँ नहीं चाहिए?”
“शिष्य होना सरल नहीं। शिष्य में और कुछ हो न हो समर्पण जरुरी है और वही missing है। गुरु ने कुछ कह दिया – तुरंत ego जाग गया, गुरु ने बुलाया – सारे काम निपटा कर, समय मिला, निकाला नहीं, तब उपस्थित हुए, गुरु से जुड़े होने पर भी अगर समस्याएं आ गई- गुरु जी बेकार, गुरु जी आश्रम में नहीं- आश्रम आना बेकार, गुरु जी मुझसे व्यक्तिगत रूप से नहीं मिलते – गुरु जी से क्यों जुड़े, जैसे सवाल….।” मैं मलाई मथ रही थी पर हाथ कब के रुक चुके थे ।
“…और जानती हैं आप , कुछ शिष्य इसलिए बनते हैं कि गुरु जी की बातें अपने नाम पर छापें और वाह वाही बटोरें, अरे ! जब गुरु मान लिया तो उसके उद्देश्य में अपना उद्देश्य मिलाओ….ना….पर महत्वाकांक्षा कैसे छोड़ें…और बताऊँ… गुरु की भक्ति करते हैं पर छोटी-छोटी बातों को अनदेखा नहीं कर सकते, चाहे फिर उससे उद्देश्यपूर्ति ही क्यों न बाधित हो… एक बात और…. ऐसे तो कोई भी व्यक्ति करीब आये और धोखा देकर चला जाए पर शिष्य बनाकर उससे धोखा खाना…”इनकी आवाज भारी हो गयी थी.… गहरी सांस छोड़ते हुए बोले, -“पर दूसरों में दोष क्यूँ देखूं, शायद मैं ही अभी इस लायक नहीं।”
मेरी तरफ देखते हुए ‘ ये ‘ बोले “आपकी मलाई तो मथ गयी पर मुझे अभी बहुत मथना है….”
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