20 मई 17….कल की चर्चा आगे बढाती हूँ…| विचारक वाली बात पूर्ण हो भी नहीं पाई थी कि आश्रम के एक बच्चे ने श्रीगुरुजी से अपना दुखड़ा रखा कि बहुत सारे लोग सत्संग में आते हैं पर अन्दर आकर libraryमें या dormitory में आराम ही करते हैं…
ओहो | फिर तो जैसे भूचाल ही आ गया….| श्रीगुरुजी बोले, ” ऐसे लोगों को सत्संग में कोई रुचि होती ही नही… खाली एक ritual सा पूरा करते हैं कि हमने महीने का अंतिम रविवार कर दिया आश्रम के नाम….| अब boundary के अन्दर आ गए, ritual पूरा हो गया, चाहे सत्संग में बैठें या dormitory में… और वैसे भी सत्संग में जो बैठते भी हैं वे भी कहाँ प्रवचन सुनते हैं…. नहीं तो मैं लगभग हर बार कहता हूँ कि कोई भी दुःख हो, मंदिर में ऊपर मैया से प्रार्थना करो, वे ही कष्ट दूर करेंगी, ध्यान मंदिर में जाओ… कुछ पल भीतर की यात्रा करो… कष्ट न दूर हो, तब की बात है … पर सत्संग पूर्ण होते ही मैंने देखा है लोग संध्या प्रसाद की लाइन में लग जाते हैं… ” उनकी नाक फिर फूलने लगी थी… इतने में उनके लिए खरबूजा आया और आमतौर पर तरबूज पसंद करने वाले आपके श्रीगुरुजी गुस्से में खरबूजा भी खा गए, फिर बोले “ क्या रहता है संध्या प्रसाद में?” मैं धीरे से बोली “ जो भी कोई सदस्य भोग में चढ़ाना चाहे… ”
” तो फिर ठीक है , इस बार प्रसाद मैं बांटूंगा और वो भी उन्हें जो मंदिर से उतर रहे होंगे …|ये दृढ़ निश्चय से बोले।
इनका यह वाक्य सुनकर आश्रम के बच्चे ने कहा, “ नहीं-नहीं गुरूजी… हम कर लेंगे…” पर गुरूजी ने खाते हुए उसे जैसे ही घूर कर देखा , उसने चुप रहने में ही भलाई समझी| मैंने भी उसका हाथ दबा कर चुप रहने का संकेत दिया | हम सब फिर चुपचाप खरबूजा खाते रहे… मुझे लगा सब निपट गया… अचानक मेरे सुपुत्र जो वहां अपना holiday homework कर रहे थे… बीच में बोल पड़े… ” हाँ ,आप प्रसाद बांटेंगे तो लोग दुबारा-दुबारा नहीं ले पाएंगे … और फिर सबको मिल पायेगा…| ”
फिर इन्होंने क्या कहा होगा ,ये आप सब सोच ही सकते हैं .. मैं सिर्फ hint दूंगी – ” खाना …. बतियाना … सोना …. क्यों आना …. समर्पण …..??? ” (blanks आप खुद भर लें )
हाँ, तो कल मिलते हैं…..21 मई…