7 अप्रैल 17…चलिए आज आपको एक और किस्सा सुनाती हूँ।बात तब की है जब हमारा विवाह तय हो चुका था और’ ये ‘मेरे माता-पिता के आमंत्रण पर नव वर्ष मनाने लखनऊ आये थे। इन्हें वापस मुरादाबाद जाना था पर सबके आग्रह पर, संकोची स्वभाव के ‘ये’ reservation cancel करा के रुक गए ।अब अगले दिन हम सभी इन्हें स्टेशन छोड़ने गए। कुछ trains के रद्द होने के कारण, इनकी train में बहुत भीड़ थी।
हमने इन्हें 3 tier के डिब्बे में चढ़ा दिया….(A. C.कोच में तो हमने सफर करना तब शुरू किया जब हमारा बेटा हुआ और security issues को लेकर पुलिस द्वारा हमे सतर्कता बरतने को कहा गया , वरना तो हम दोनों ही 3 tier में ही सफर करते थे…..ऐसा नही है कि हमारे पास इतने भी पैसे नहीं होते थे कि हम A. C. कोच afford न कर सकें पर इनका मानना है कि पैसा अपने आराम पर खर्च करने के लिए नहीं …काम से related priorities पर खर्च करने के लिए होता है….,हम्म्म्म….ये बात युवाओं को सीखनी होगी जो पहले आराम देखते हैं …)
ओहो!मैं भी न…कहाँ से कहाँ पहुंच गई…Actually मेरा जी चाहता है कि इनके मन का एक – एक कोना आपको दिखाऊँ, इसलिए भाव में बह गई…. खैर…तो हमने इन्हें train में चढ़ा कर, राम-श्याम किया और आगे बढ़े ही थे कि देखा ये सामने खड़े हैं। भौंचक्के से हम….पूछने लगे ,” अभी तो उस तरफ से आपको train में चढ़ाया था, आप इस तरफ से क्यों उतर आए ?”
उत्तर आया,” अंदर इतनी भीड़ है कि लोग एक के ऊपर एक चढ़े हैं और सिगरेट भी पी रहे हैं… मैं नही जा सकता।”
अब हमारे पास इन्हें घर वापस लाने के अलावा कोई option नहीं था। रास्ते भर मेरे भाई-बहन चुटकी लेते रहे,” दरअसल आपका यहां से जाने का मन नहीं है…” और बेचारे ये चुपचाप बैठे रहे, शायद यह angle ये सोच नहीं पाए।
अब जब इस बात को याद करती हूं ,तो ख्याल आता है, ‘आप भीड़ के नेतृत्व के लिये भेजे गए हैं, भीड़ में से एक होने के लिए नहीं ….’