खबर का शीर्षक निश्चित ही चौंकाने वाला है , लेकिन सौ फीसदी सही है. आपको यह जानकर हैरानी होगी कि थैलेसीमिक मरीजों के इलाज में बकरे का खून इस्तेमाल करने की यह पद्धति पांच हजार साल पुरानी है.भारत में इसका प्रयोग अहमदाबाद में किए जाने के बाद अब इसे पंजाब के लुधियाना के मॉडल ग्राम स्थित सरकारी आयुर्वेदिक अस्पताल में इसे शुरू किया जा रहा है.
आपको बता दें कि अहमदाबाद के निजी अखंडानंद आयुर्वेद अस्पताल में बकरे के खून चढ़ाए जाने की इस पद्धति से थैलेसीमिक बच्चों को बहुत लाभ हुआ है .इससे प्रेरित होकर पंजाब के छह आयुर्वेदिक डॉक्टरों ने अहमदाबाद जाकर इस अस्पताल में बकरे के खून से थैलेसीमिक मरीजों के इलाज का प्रशिक्षण प्राप्त किया है .यह बात लुधियाना सरकारी आयुर्वेदिक अस्पताल के इंचार्ज डॉ. हेमंत कुमार ने बताते हुए कहा कि खून चढ़ाने के लिए गुजरात से विशेष उपकरण मंगवाए जा रहे हैं.सरकारी स्तर पर पंजाब का यह पहला प्रोजेक्ट है .इस प्रोजेक्ट की लागत करीब 36 लाख रुपये है. जिसे केंद्र ने मंजूर कर 13 लाख रुपये की राशि जारी भी कर दी है.
इस नई पद्धति के बारे में लुधियाना के सरकारी आयुर्वेदिक अस्पताल की डॉक्टर शिवाली अरोड़ा ने बताया कि बकरे के खून से थैलेसीमिक मरीजों के इलाज यह पद्धति पांच हजार साल पुरानी है. चरक संहिता में भी इसका उल्लेख मिलता है.इस पद्धति में एनिमा के जरिए बकरे के खून को मरीज की बड़ी आंत तक पहुंचाया जाता है, जहां रक्तकणों को अवशोषित कर लिया जाता है.इलाज के दौरान रोगी को आयुर्वेदिक दवाइयों के अलावा बच्चे के बोनमैरो को सुधारने के लिए बकरे के बोनमैरो से बना आयुर्वेदिक दवा मिश्रित घी दिया जाता है .इसका असर इतना अच्छा है कि बच्चे को जल्दी खून चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती है.यदि किसी बच्चे को महीने में पांच बार खून चढ़ रहा है ,तो इस इलाज से दो बार या एक बार ही देना पड़ता है.
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