राष्ट्रीय पर्व और मनोज कुमार एक जैसे हो गए हैं। लोग मुझसे पूछते है कि मैं ऐसा क्यों कहता हूं तो मेरा जवाब होता है कि दोनों की याद सिर्फ रस्म अदायगी होती है। जब तक हम राष्ट्रीय पर्वों को अपना पर्व समझ कर नहीं मनाएंगे तब तक इन पर्वों का असली मकसद हम अगली पीढ़ी को नहीं बता पाएंगे। 15 अगस्त 1947 के दिल्ली में हुए जश्न में हम शरणार्थी के तौर पर शामिल हुए थे, लेकिन मुझे ये जश्न विरासत में मिला। मैंने समझा कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस महज रस्म अदायगी भर नहीं हैं, जितना हो सकता था मैंने देश को खुद से ऊपर समझने का ये भाव अपनी अगली पीढ़ी को देने की कोशिश की और बहुत हद तक मैं खुद को इसमें सफल भी मानता हूं।
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भारत के निर्माण में हमने कुछ नहीं किया
लेकिन, सिनेमा से परे जब बात होती है तो मुझे लगता है कि हमारे नेताओं ने आजादी के बाद के जिस भारत की कल्पना की थी, उसे बनाने की जिम्मेदारी सिर्फ नेताओं की ही नहीं थी। हमने भी कुछ खास अपने सपनों के भारत के निर्माण में काम नहीं किया। हमें हौसला, हिम्मत और हर जुल्म से टक्कर लेने की विरासत तो मिली लेकिन हमने जैसे ही इसे अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया, गण और तंत्र के रिश्ते में खिंचाव दिखने लगा। सरकारी कामों में पारदर्शिता और हर काम की मियाद तय होने की कोशिशों से इसमें बदलाव तो आया है, लेकिन अब भी दिल्ली बहुत दूर है।
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अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार जरूरी
गण और तंत्र का रिश्ता वैसा ही है, जैसा कि संविधान में अधिकारों और कर्तव्यों का है। जैसे हम अक्सर अपने अधिकारों की तो लड़ाई लड़ते रहते हैं पर शायद ही कभी अकेले में इस बात पर मनन चिंतन करते हैं कि क्या हम अपने कर्तव्यों को पूरा करने में सफल हुए हैं। मेरा ये अब भी मानना है कि अगर हम अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार रहें तो गण और तंत्र के रिश्ते को न सिर्फ बेहतर बनाया जा सकता है बल्कि इसको सुखदायी और वरदायी भी बनाया जा सकता है क्योंकि जहां जन का मन प्रसन्न है, वही सच्चा गणतंत्र है।