इंसानियत इसलिए खत्म हो रही है क्योंकि हमने अपने दिल और दिमाग को अलग कर दिया है; या यूं कहें कि सोच से भावनाओं को अलग कर दिया है; या सीधे शब्दों में यूं कि दिमाग दिल पर हावी हो गया है. दिल और दिमाग की स्थिति को भावनात्मक संतुलन की स्थिति भी नहीं कही जा सकती क्योंकि (ये संतुलन स्थापित करना भी नहीं कहा जा सकता) संतुलित व्यक्तित्व की हमेशा ही जीत होती है जबकि असंतुलन हमेशा असफलता का ही कारण बनता है.
हम अपने आंतरिक और बाह्य व्यक्तित्व को अलग-अलग नहीं बांट सकते….वो एक ही हैं — दो हाथ, दो पैर, दो आंखें हैं जो एक साथ ही पूरे हैं, वरना अधूरे हैं.
दुनिया को एक नई सोच, एक नया नजरिया अपनाने की जरूरत है — एक ऐसी सोच जो जितना संभव हो वैज्ञानिक और आध्यात्मिक हो. इसे मैं क्रांति कहता हूं. वास्तव में दुनिया इसी क्रांति के इंतजार में है – जिसमें धर्म और विज्ञान का भेद खत्म हो जाए और धर्म में विज्ञान, विज्ञान में धर्म नजर आए, यानि दोनों एक नजर आएं.. जिसमें भौतिकवादी और अध्यामवादी एक दूसरे पर लांछन न लगाएं, बल्कि एक दूसरे के सहयोगी हों. ऐसा इसलिए क्योंकि यही जीवन का भी सार है. वास्तव में भौतिकावाद और आध्यामिकता में टकराव का कोई कारण नहीं है. जो इसके नाम पर लड़ते हैं, मूर्ख हैं. ये मूर्खता पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाने कब से चली आ रही है जिसकी मानव जाति को एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है.
आप भौतिकवादी होने के साथ संतुलित रूप से आध्यात्मिक भी हो सकते हैं. मैं समाज को तकनीक और विज्ञान दोनों ही प्रकार से उन्नत होते हुए इससे मिली हर प्रकार की सुख-सुविधाओं के साथ आगे बढ़ते हुए देखना चाहता हूं, लेकिन मैं उतना ही ज्यादा मैं समाज में आध्यात्मिक जागरुकता भी देखना चाहता हूं ताकि वो विज्ञान की हर देन का भरपूर आनंद ले सकें. मैं हर किसी को भगवान बुद्ध की तरह बनते देखना चाहता हूं, लेकिन उतना ही मैं यह भी चाहता हूं कि दुनिया में जितना संभव हो, सुख-सुविधाएं बढ़ें और ये ज्यादा से ज्यादा खूबसूरत दिखे.
दुनिया को स्वर्ग बनाना हमारे हाथों में है, लेकिन इसके लिए हमें भेदभाव पूर्ण व्यवहार का त्याग करना होगा. सभी मतभेद या हानि-लाभ भुलाकर हमें चीजों या वस्तुस्थिति को उसके मूल रूप में स्वीकार करना होगा. ये बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि… मतभेद केवल तभी तक मतभेद हैं जब तक आप उसपर अलग-अलग दृष्टिकोणों के साथ सोचते हैं, वरना वो मतभेद न होकर एक दूसरे के पूरक या अलग-अलग रूप हैं.
हमें एक सेतु का निर्माण करना होगा. मानवता के भविष्य के लिए, नई सोच और नए मानव के साथ एक नई दुनिया के निर्माण के लिए हमें जो करना है, वह यही कि पुरानी सभी सोच को छोड़ दें. चाहे वो आध्यात्मिक हो या भौतिक, सभी बैर भूल जाएं. और इस प्रकर हम एक ऐसा यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाएं, जिसमें अपने बाह्य रूप में भौतिकवादी होने के साथ आत्मिक रूप में हम आध्यात्मिक भी हों. हमें इन दोनों को जोड़ना है, इनके बीच एक सेतु का निर्माण करना है.
वह मानव जो अपने शरीर और उसकी सभी क्षमताओं का पूरी तरह लाभ उठाते हुए आनंद पाए, वह मानव जो अपने मस्तिष्क को विकास से उपजा सबसे महत्वपूर्ण यंत्र समझे, और वह मानव जो दिव्यता की हद तक अपने मस्तिष्क को क्रियाशील रखे और अनंत खोज की ओर अग्रसर रहें; ऐसा मानव बनाने के लिए उस हर किसी को प्रयास करना होगा जो किसी न किसी रूप में समाज को जागरूक बनाने में लगे हैं. वो शिक्षाविद् भी हो सकते हैं और पत्रकार भी या कोई आध्यात्मिक गुरु — लेकिन, एक बेहतर मनुष्य के निर्माण के लिए उन्हें ईमानदारी से मानव की संपूर्णता या संपूर्ण व्यक्तित्व को स्वीकार करना होगा.
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