हर साल वैशाख मास की शुक्ल पंचमी के दिन महान हिन्दू दार्शनिक एवं धर्मगुरु आदि शंकराचार्य की जयंती मनाई जाती हैं. जगद्गुरु कहे जाने वाले आदि शंकराचार्य ने सात वर्ष की उम्र में ही वेदो का ज्ञान प्राप्त कर लिया था. साथ वर्ष की उम्र में ही आदि शंकराचार्य को वेदो के अध्ययन मनन में उपलब्धि मिल गई थी. उनके इस हुनर से सभी को यह ज्ञात हो चुका था कि वे कोई साधारण बालक नहीं हैं. हिन्दू धर्म के लोगों का मानना है कि आदि शंकराचार्य भगवान शिव के अवतार है. आपको बता दें कि आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ईसा पूर्व केरल के कालड़ी नामक स्थान में नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. शंकराचार्य का जन्म उनके पिता कि कठिन शिव तपस्या की वजह से हुआ था. शंकराचार्य कई प्रतिभाओं के धनी थी उनमे प्रकाण्ड पाण्डित्य, प्रचण्ड कर्मशीलता का भंडार था. वे हमेशा से केवल एक ही इंसान की खोज करना चाहते थे और वो इंसान थे वो खुद. शंकराचार्य ने अपना जीवन स्वयं की खोज में बिताया और जब वे बारह साल के हुए तब सर्वशास्त्र में पारंगत हो गए, और जब उनकी उम्र सोलह साल हुई तब उन्होंने ब्रह्मसूत्र-भाष्य की रचना की, और उसके बाद कई बच्चो को वे इसका ज्ञान देने लगे.
आदि शंकराचार्य एक ऐसे धर्मगुरु माने जाते हैं जिन्होंनें हिंदू धर्म की पुन:स्थापना की. आदि शंकराचार्य ने वेदांत मत का प्रचार भी किया और देश के चारो तरफ शक्तिपीठों की स्थापना कि और हिन्दू धर्म की ध्वज को चारो तरफ फहराया. शंकराचार्य अपनी माँ के एकमात्र पुत्र थे लेकिन फिर भी वे सन्यासी बने. उनकी माँ उन्हें सन्यासी बनने की आज्ञा कभी ना देती लेकिन एक वक्त ऐसा आया जब उन्हें वो आज्ञा देनी पड़ी. एक बार नदी के किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी के पैर पकड़ लिए. इस दौरान उनकी माँ भी वहीं थी तब उन्होंने इस बात का फायदा उठाया और अपनी माँ से कहा कि ” माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नही तो ये मगरमच्छ मुझे खा जायेगा “, इस बात को सुनते ही उनकी माँ ने उन्हें सन्यास लेने कि आज्ञा दे दी और वैसे ही मगमच्छ ने उनके पैर भी छोड़ दिए. कुछ समय बाद ही उन्होंने सन्यास ले लिया. शंकराचार्य ने सन्यास गोविंदा स्वामी से लिया. सन्यास लेने के बाद कुछ दिनों तक वे काशी में रहे और भारतवर्ष में भ्रमण किया. शंकराचार्य ने अपने ज्ञान से बौद्ध धर्म को मिथ्या साबित किया और वैदिक धर्म को सही साबित किया. मात्र 32 साल की उम्र में शंकराचार्य स्वर्ग सिधार गए.