लंबे समय तक संपर्क, संबंध और संवाद के सहारे लोगों में भाजपा की पकड़ और पैठ को मजबूत बनाने की कोशिश। फिर बिहार के राज्यपाल के रूप में रामनाथ कोविंद का लखनऊ और अपने गृहजिला कानपुर जाकर लोगों से मिलना-जुलना।
अब देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद की जिम्मेदारी निभाने वाली भूमिका में लखनऊ और कानपुर के अपने लोगों के बीच आना। एक तरफ संवैधानिक पद की मर्यादा और दूसरी तरफ पुरानों संबंधों तथा सरोकारों के निर्वहन का कर्तव्य।
जाहिर है कि दोनों के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं था, पर राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविंद ने प्रदेश के दो दिन के दौरे में इस संतुलन को ही बेहतर ढंग से नहीं साधा बल्कि सफल होकर भी दिखाया।
कोई ‘अपना पुराना’, वह भी बड़ी जिम्मेदारी वाले पद के साथ अपने बीच आए तो यादें ताजा होना स्वाभाविक ही है।
वही हुआ भी। जो कोविंद कभी प्रदेश महामंत्री के नाते भाजपा के तमाम बड़े नेताओं के लखनऊ आगमन पर स्वागत के लिए हवाई अड्डे पर इंतजार करते थे, उन्हीं कोविंद को जब हवाई अड्डे पर तमाम अपने लोग अगवानी के लिए खड़े मिले होंगे तो स्वाभाविक रूप से अतीत की यादें ही ताजा नहीं हुई होंगी बल्कि मन में कहीं न कहीं संकोच का भाव भी आया होगा।
पर, औपचारिकता का निर्वाह तो होना ही था। हवाई अड्डे से लेकर अंबेडकर महासभा तक और अंबेडकर महासभा से लेकर इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान तथा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरफ से उनके सम्मान में दिए गए रात्रि भोज तक।
कुछ से वे नजदीक से मिले। कुछ से आंखों ही आंखों में बात हो पाई। कई से तो सिर्फ हाथ हिलाकर ही भावों का आदान-प्रदान संभव हो पाया, पर इस दौरान एक काम और हुआ जो दिखाई तो नहीं दिया लेकिन संदेश स्वत: चला गया।
भाजपा के प्रदेश महामंत्री विजय बहादुर पाठक कहते हैं कि पार्टी के नेता और प्रदेश महामंत्री का दायित्व निभाने के नाते रामनाथ कोविंद का लोगों से संपर्क और संबंध होना स्वाभाविक है। जब राष्ट्रपति के रूप में उनका आगमन हुआ तो यादें ताजा होनी ही थीं। राष्ट्रपति के रूप में कोविंद ने भी लोगों को अपनेपन का एहसास कराया।
यही वजह रही कि तमाम लोगों ने उनके साथ की पुरानी तस्वीरों को सोशल मीडिया पर डालकर अतीत के पलों को याद ही नहीं किया, लोगों को याद भी दिलाया कि एक आम आदमी आज ‘खास आदमी’ हुआ है। संबंधों में गणित का फॉर्मूला फिट नहीं बैठता।
राष्ट्रपति का पद राजनीति से ऊपर होता है, पर उनके इस अपनेपन का लाभ उनके ‘अपनों’ को मिलना स्वाभाविक ही है। जाहिर है, पाठक भी मानते हैं कि राष्ट्रपति के रूप में कोविंद भले ही भाजपा से दूर हों लेकिन उनके शब्द और सरोकार भविष्य में भाजपा का सहारा बन सकते हैं।
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