भारत में मैन्यूफैक्चरिंग इकाइयों में श्रमिकों की कमी कारण और समाधान

सड़क समेत अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ सर्विस सेक्टर में हो रहे लगातार विकास से मैन्यूफैक्च¨रग करने वाले उद्यमी इन दिनों श्रमिकों की भारी समस्या से जूझ रहे हैं। इस प्रकार के मैन्यूफैक्चरर्स मुख्य रूप बिना ब्रांड वाले कपड़े, फुटवियर, फैशन के सामान एवं रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाली छोटी-छोटी चीजों का उत्पादन करते हैं।

श्रमिकों की समस्या से बड़ी कंपनियों के लिए जाब वर्क करने वाले माइक्रो व स्माल स्तर के उद्यमी भी जूझ रहे हैं। जानकारों का कहना है कि श्रमिकों की समस्या दूर करने के लिए उन्हें श्रमिकों का वेतन बढ़ाना होगा और उन्हें पीएफ एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं भी देनी होगी या फिर उन्हें मैन्यूफैक्च¨रग का ऑटोमेशन (मशीनीकरण) करना होगा। दोनों ही स्थिति में उनकी लागत बढ़ेगी।

अभी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में सैकड़ों ऐसी छोटी यूनिट मैन्यूफैक्च¨रग का काम कर रही हैं जहां श्रमिकों को पीएफ एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं नहीं मिलती है। दिल्ली के नरेला इलाके में नेल पालिस, लिपस्टिक, ¨बदी व अन्य सौंदर्य का सामान बनाने वाले दीपक अरोड़ा ने बताया कि 10 साल पहले उनकी फैक्ट्री में काम करने वाले श्रमिक हमेशा काम पर रखने के लिए किसी न किसी की सिफारिश करते रहते थे।

अब हालत है कि हमें श्रमिकों से सिफारिश करनी पड़ती है कि वे और श्रमिकों को ले आएं। दिल्ली के ओखला से लेकर नरेला, बवाना जैसे सभी औद्योगिक इलाकों में स्थित छोटी फैक्टि्रयों के बाहर श्रमिकों की जरूरत का बोर्ड टंगा मिल जाएगा।फेडरेशन ऑफ इंडियन माइक्रो, स्माल एंड मीडियम इंटरप्राइजेज के महासचिव अनिल भारद्वाज कहते हैं कि इस प्रकार के गैर ब्रांडेड मैन्यूफैक्च¨रग करने वाली यूनिट को अब श्रमिक हासिल करने के लिए अपनी लागत में बढ़ोतरी करनी होगी अन्यथा भविष्य में वे बाजार से बाहर हो सकते हैं।

प्लास्टिक की छोटी-छोटी वस्तुएं बनाने वाले नितिन अग्रवाल ने बताया कि उनके यहां काम करने वाले कई श्रमिक अब हरियाणा व दिल्ली की जगह केरल जा रहे हैं क्योंकि उन्हें वहां इंफ्रास्ट्रक्चर के काम में रोजाना एक हजार रुपए की दिहाड़ी मिल रही है। छोटी फैक्ट्री वाले एक श्रमिक को प्रतिमाह तीस हजार रुपए नहीं दे सकते हैं। दूसरी तरफ पिछले पांच सालों में जोमैटो, स्विगी, ¨ब्लकिट जैसे क्विक कामर्स प्लेटाफार्म का काम तेजी से बढ़ रहा है। क्विक कामर्स और ई-कामर्स सेक्टर में हर साल लाखों की संख्या में युवाओं को नौकरियां मिल रही है और इस सेक्टर में आने वाले अधिकतर श्रमिक गैर संगठित सेक्टर या अनौपचारिक रूप से मैन्यूफैक्च¨रग करने वाली यूनिट में कार्यरत थे।

वर्ष 2029 तक क्विक कामर्स का कारोबार 3.4 अरब डालर से बढ़कर नौ अरब डालर के पार चला जाएगा और वर्ष 2027 तक ही इस सेक्टर में 25 लाख लोग काम कर रहे होंगे। क्विक कामर्स और ई-कामर्स सेक्टर में ये श्रमिक प्रतिमाह 20,000 रुपए से अधिक कमाते हैं जबकि असंगठित मैन्यूफैक्च¨रग में उन्हें अधिकतम 15,000 रुपए प्रतिमाह मिलते हैं और काम में ज्यादा मेहनत करना पड़ता है। सरकार की तरफ से पिछले 10 सालों में इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण पर फोकस बढ़ाने से भी दिहाड़ी मजदूरों की मांग बढ़ी है। देश भर में निर्माण कार्य तेजी से हो रहा है।

इन जगहों पर श्रमिकों को 25-30 हजार रुपए आसानी से मिल जाते हैं। सड़कों का जाल बिछने और यातायात की सुविधा बढ़ने से श्रमिक अब काम के लिए किसी खास शहर या जगह पर निर्भर नहीं है। वे तुरंत उन जगहों पर पलायन कर जाते हैं जहां उन्हें अधिक मजदूरी मिलती है। गांव से शहर को जोड़ने वाली सड़कों की हालत अच्छी होने से श्रमिक अब गांव के पास के शहरों में आकर छोटा-मोटा अपना कारोबार कर लेते हैं जिससे उन्हें उतनी कमाई हो जाती है जितना उन्हें बड़े शहरों की फैक्ट्री में काम करने पर मिलता है।

विशेषज्ञों के मुताबिक इन सबके अलावा कोरोना काल के बाद से सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में राशन दे रही है। उन्हें खाने की दिक्कत नहीं है। मनरेगा में जाब कार्ड बनाने से भी उन्हें कुछ दिहाड़ी मिल जाती है। आवास के लिए भी पैसा मिलता है। इन सुविधाओं के साथ वे दिन भर में 500 रुपए भी कमा लेते हैं तो अपने गांव या कस्बों में उनका जीवन आराम से चल जाता है क्योंकि वहां खर्च भी कम है।

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