शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि शुक्राचार्य महर्षि भृगु और हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या की संतान थे। क्योंकि उनका जन्म शुक्रवार के दिन हुआ था इसलिए उनके पिता ने उनका नाम शुक्र रखा था। महर्षि के पुत्र होने के बाद भी वह आगे चलकर दैत्यों के गुरु बने जिसके पीछे एक बड़ी ही रोचक कथा मिलती है। चलिए जानते हैं वह कथा।
महर्षि शुक्राचार्य के विषय में यह कहा जाता है कि वह दैत्यों के गुरु थे। साथ ही वह भगवान शिव के परम भक्त भी थे। इतना ही नहीं, ज्योतिष शास्त्र में भी दैत्यों के गुरु शुक्र देव महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ऐसे में चलिए जानते हैं कि आखिर किस प्रकार शुक्राचार्य को राक्षसों का गुरु की उपाधि प्राप्त हुई।
इस तरह बने दैत्यों के गुरु
जब शुक्र थोड़े बड़े हुए तो उनके पिता ने उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए अंगिरस के आश्रम में भेजा। अंगिरस के पुत्र बृहस्पति थे, जो शुक्राचार्य के साथ ही शिक्षा ग्रहण करते थे। कहा जाता है कि शुक्राचार्य की बुद्धि बृहस्पति की तुलना में ज्यादा कुशाग्र थी। लेकिन इसके बाद भी अंगिरस अपने पुक्ष को ज्यादा स्नेह करते थे। इसी वजह से शुक्र ने अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़ दी और वह गौतम ऋषि से शिक्षा ग्रहण करने लगे। तब गौतम ऋषि ने उन्हें शिव जी की आराधना करने की सलाह दी।
तपस्या से शिव जी को किया प्रसन्न
जब शुक्राचार्य को यह पता चला कि देवताओं ने बृहस्पति देव को अपना गुरु मान लिया है, तब उन्होंने गौतम ऋषि की सलाह मानकर शिव जी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। इससे भगवान शिव अति प्रसन्न हुए और उन्हें वरदान मांगने को कहा। तब शुक्राचार्य ने महादेव से मृत संजीवनी मंत्र मांग लिया। इस मंत्र के द्वारा किसी भी मृत व्यक्ति को फिर से जीवित किया जा सकता था। इसके बाद शुक्राचार्य अपने आश्रम पहुचे तो उन्हें पता चला कि उनकी माता ने दैत्यों की सहायता की थी, जिस कारण उन्हें भगवान विष्णु के हाथों मृत्यु का सामना करना पड़ा।
दानवों को किया पुनर्जीवित
इससे शुक्राचार्य अति क्रोधित हुए और उन्होंने मृतसंजीवनी मंत्र का उपयोग बड़ी मात्रा में मृत दानवों को पुनर्जीवित करने के लिए किया और दानवों को अपना शिष्य बनाया। साथ ही उन्होंने भगवान विष्णु को मनुष्य रूप में जन्म लेने का श्राप भी दे दिया। इसलिए शुक्राचार्य दानवों के गुरु कहलाए।