पिछले कई विधानसभा चुनावों में सीएम के लिए कोई चेहरा प्रोजेक्ट न करने और चुनाव जीतने के बाद अचानक किसी नए चेहरे को सीएम के लिए सामने लाकर चौंकाने वाली बीजेपी को अब कई तरह की राजनीतिक मजबूरियों की वजह से अपनी रणनीति बदलनी पड़ रही है.Good News: भारत की पांच महिलाएं फोब्र्स की शक्तिशाली महिलाओं में शामिल, जानिए कौन हैं वह!
हिमाचल में चुनाव से ऐन पहले बीजेपी ने प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर दिया. गुजरात चुनाव के लिए बीजेपी विजय रुपाणी को अपना चेहरा बना चुकी है और कर्नाटक चुनाव से तो 7-8 महीने पहले ही बीजेपी ने वीएस येदयुरप्पा की अगुवाई में चुनाव लडने का ऐलान कर दिया था.
पहले मोदी का चेहरा था अहम
गौरतलब है कि मई 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिन-जिन राज्यों में चुनाव हुए- बीजेपी ने हर चुनाव प्रधानंत्री के नाम और काम के आसरे लड़ा. या कहें मोदी ही इकलौता चेहरा थे-जिसके भरोसे हर चुनाव में दांव खेला गया, और जिन-जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार बनी-वहां मोदी-शाह ने अपनी पसंद से मुख्यमंत्री चुना. फिर चाहे महाराष्ट्र में देवेन्द्र फड़नवीस हों या हरियाणा में खट्टर या फिर यूपी में योगी आदित्यनाथ और अगर असम में सर्वानंद सोनोवाल को चेहरा बनाया गया तो वो कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए थे-जबकि दिल्ली में किरण बेदी उम्मीदवार बनी तो वो उस आंदोलन से निकली थीं-जिसने उस वक्त की मनमोहन सरकार को हिला दिया था. यानी न किरण बेदी और न सर्वानद सोनोवाल बीजेपी के सदस्य थे. वे चुनाव से पहले बीजेपी में आए और उम्मीदवार बना दिए गए.
क्या खत्म हो रही मोदी लहर!
लेकिन अब अगर मोदी के होते हुए भी राज्यों में बीजेपी को एक चेहरे की दरकार है तो क्या इसका सीधा मतलब है कि मोदी की लहर खत्म हो रही है. या मोदी के विकास का ककहरा नोटबंदी और जीएसटी के साए में लोकल मुद्दों से छोटा हो गया है, क्योंकि जिस तरह 73 साल 6 महीने की उम्र में प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाया गया है-वो मोदी के रूल-75 को चुनौती देता है, क्योंकि यह सबको मालूम है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की पहली पसंद जे पी नड्डा थे. लेकिन चुनाव से ऐन पहले अगर नड्डा के बजाय धूमल का नाम घोषित हुआ तो साफ है कि बीजेपी को एक ऐसा चेहरा चाहिए था, जो हिमाचल की राजनीति की नब्ज समझता हो, जिसके पास वोटों का जातिगत समीकरण साधने की हैसियत हो. धूमल राजपूत वर्ग से आते हैं, जिसके हिमाचल में 38 फीसदी वोटर हैं. इतना ही नहीं, बीजेपी की दिक्कत ये भी थी कि जब तक धूमल के नाम का ऐलान नहीं हुआ, तब तक हिमाचल में लड़ाई वीरभद्र बनाम मोदी मानी जा रही थी और बीजेपी ऐसा चाहती नहीं थी.
गुजरात में भी मोदी चेहरा नहीं!
लेकिन सवाल सिर्फ धूमल का भी नहीं है, जिस तरह विजय रुपाणी और नितिन पटेल पर मोदी के गुजरात में ही दांव खेला गया-तो क्या उसका मतलब यही है कि गुजरात में हार की स्थिति में हार का ठीकरा बीजेपी मोदी के सिर नहीं फोड़ना चाहती. गुजरात में बीजेपी के लिए जातिगत समीकरण अहम हो गए हैं, और मोदी का चेहरा इनके नीचे दब गया है.
कर्नाटक में येदुरप्पा पर दांव
कर्नाटक में तो जिस तरह मई में ही भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे रहे येदुरप्पा को पार्टी ने अपना चेहरा बनाया-उससे साफ है कि बीजेपी के लिए सत्ता अहम है और कर्नाटक को लेकर बीजेपी की सोच भी साफ है कि वहां मोदी का जादू नहीं चल सकता और लोकल राजनीति को साधने के लिए लोकल धाकड़ नेता ही चाहिए. बीजेपी को अच्छी तरह मालूम है कि पिछली बार अगर कर्नाटक में कमल खिला था तो उसकी वजह येदुरप्पा ही थे-और येदुरप्पा के जाने से पार्टी की गुटबाजी सतह पर आ गई थी. लेकिन वजह चाहे जो हो-ये चेहरे ये बता रहे हैं कि तीन अहम राज्यों के चुनाव में मोदी बैकफुट पर हैं, और उन्हें क्षत्रपों की जरूरत है.