नवाबों के शहर लखनऊ की आबोहवा ही कुछ अलग है. रूमानियत से भरा यह शहर आपको जीने का तरीका सिखाता है. यह शहर अभी भी कविताओं और राजसी ठाठ-बाट का प्रतिनिधित्व करता है. इस शहर की हवा में ही शानदार खाने की खुशबू आती है. रुबीना पी. बनर्जी ने ऐतिहासिक रूप से समृद्ध इस मॉडर्न शहर की यात्रा की. जानिए क्या कहती हैं वह लखनवी अंदाज के बारे में –
केसरबाग के नवाबी नजारे:
चौधरी चरण सिंह एयरपोर्ट से हमारी गाड़ी केसरबाग की तरफ रवाना हुई. यात्रा की शुरुआत में मैं डरी हुई थी. मेरे मन में उथल-पुथल मची थी. क्या मुझे इस प्रगति का मुखौटा पहने शहर में उमराव जान सरीखा नवाबी ठाठ देखना नसीब होगा. लेकिन जैसे-जैसे हम परिवर्तन चौक की तरफ बढ़ते गए, मेरा डर धीरे-धीरे कम होता गया. जैसे ही हम केसरबाग पहुंचे, वहां के विशाल द्वार पर मुझे मछली की एक बहुत ही खूबसूरत नक्काशी दिखाई दी.
सआदत अली खान के मकबरे का गुम्बद आपको दूर से ही अकर्षित करेगा. इसका निर्माण सआदत अली खान के बेटे नवाब गजी-उदद्दीन हैदर ने करवाया था. कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर मेरा स्वागत दूर तक फैली हरियाली ने किया. आगे चलने पर काले और सफेद रंग के संगमरमर से बनी समाधि ने मेरा मन मोह लिया.
इसी से सटा हुआ 1926 में विष्णु नारायण भातखंडे द्वारा बनाया गया भातखंडे स्कूल ऑफ म्यूजिक है. हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक का अनुकरण करने वाला हर शख्स नारायण भातखंडे को जरूर जानता होगा क्योंकि इन्होंने ही हिंदुस्तानी शास्त्रीय रागों का वर्गीकरण किया था.
केसरबाग का हर कोना इतिहास की कहानियां सुनाता है. हर कदम पर आपको ठुमरी की छनछनाहट सुनाई देगी.
1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने केसरबाग को तोड़ने का हुक्म दे दिया. बेगम हजरत महल के राज में केसरबाग नवाबों का गढ़ था.
1856 में जब नवाब वाजिद अली शाह को मेटियाब्रुज में निर्वासित कर दिया गया था, तब बेगम ने केसरबाग की कमान अपने हाथ में ले ली थी. केसरबाग को धीरे-धीरे ध्वस्त कर दिया गया. इसकी चौड़ी सड़क इसके आंगन से होकर गुजरती थी.
कोटवारा हाउस की रौनक:
इस ट्रिप पर कोटवारा हाउस मेरे रहने का ठिकाना था. वहां एक Phaeton भी खड़ी थी. उस हवेली की खिड़कियों के शीशे गंदे थे और छत आर्क आकार की थी. मेरा कमरा कुछ स्पेशल था. उसमें छोटी छोटी सीढ़ियां थीं, ऊपर की ओर बनी बैठक में जाने के लिए. वहां की सभी चीजें पुराने जमाने की लग रही थीं. बेड के ठीक ऊपर 100 साल पुराना एक ड्रेस फ्रेम लगा था, जिसकी कढ़ाई देखते ही बन रही थी.
विंटेज कार के झरोखे से लखनऊ की झलक:
अगली सुबह एक विंटेज कार हमें ला मार्टिनियर के चैपल ले जाने के लिए हमारा इंतजार कर रही थी. वहां रूमी सूफी कविता पाठ करने वाली थी. उस कार की खिड़की से मैंने मॉडर्न लखनऊ का दीदार किया. भव्य आर्ट कन्वेंशन सेंटर, शानदार मान्यवर श्री काशीराम स्मारक स्थल के गुम्बद, 52 फुट ऊंचा ब्रॉन्ज फाउंटेन और समता मूलक चौक देखकर मेरा मन प्रसन्नता से भर गया.
वहां सामाजिक परिवर्तन स्थल भी है जो 6.5 एकड़ में फैला हुआ है. इसका आर्किटेक्चर देखते ही बनता है. निश्चय ही लखनऊ हमें आश्चर्यचकित कर देता है. आखिरकार हम ला मार्टिनियर जाने वाली सड़क की तरफ मुड़े. Claude Martin Constantia की सुंदरता को देखकर मैं अवाक रह गई. 1790 में बना Claude Martin Constantia प्रकृति के गोद में ही बसा हुआ लगता है.
शाम को मैं शॉपिंग कॉम्पलेक्स घूमने निकली, जो हजरतगंज के नाम से जाना जाता है. यहां पुरानी इमारतों के अंदर ब्रांडेंड शॉप्स भी मिल जाएंगी. लखनऊ के खान-पान की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती. कोई भी बर्गर या पिज्जा, लखनऊ की चाट की बराबरी नहीं कर सकता. सोंठ के पानी वाली शुक्लाजी की पानीपुरी और रॉयल कैफे की कटोरी चाट, अपने आप में मजेदार है.इमामबाड़े की रंगत:
बड़ा इमामबाड़ा और आसिफी इमामबाड़ा, 1784 से लखनऊ की प्रकृति को परिभाषित करते आ रहे हैं. इनको सूखे के दौरान लोगों को रोजगार देने के लिए बनाया गया था. गुंबददार सेंट्रल पार्क के भीतर आसफुद्दौला का मकबरा आर्किटेक्चर का लाजवाब नमूना है. इसका आर्क दीवार में 170 फीट तक बिना किसी डंडे या लकड़ी के सहारे फैला हुआ है.
मैंने रूमी दरवाजा देखने का फैसला लिया जो एक तांगे के ऊपर बना हुआ है. इसे देखकर मेरी पुरानी यादें ताजा हो गई. इसका 60 फुट ऊंचा द्वार नवाब आसफुद्दौला ने बनाया था, जिसे शहर का गेटवे कहा जाता है.
चौक बाजार की खरीदारी:
अंत में समय था चौक से कुछ खरीदारी करने का. कांच की चूड़ियों के प्रकाश के प्रतिबिंब ने मुझे रोक लिया. कुछ ज्वेलरी शॉप देखने के बाद मैं चिकन की कढ़ाई वाली शॉप में गई. चिकनकारी और लखनऊ का नाम साथ-साथ लिया जाता है. कहा जाता है नूरजहां ने खुद ही चिकनकारी की शुरुआत की थी. गोल्ड अनारकली पर जड़े हुए सोने पर मेरा ध्यान गया और यहां से शुरू हुआ दुकानों की खाक छानने का सिलसिला.
सारी शॉपिंग के बाद मैं अपना सामान कार में रख ही रही थी कि टुंडे कबाब की दुकान से कबाब की सुगंध ने मेरा ध्यान उस ओर खींच लिया. दिनभर की थकान के बाद कबाब संग रूमाली रोटी खाकर मेरी एनर्जी वापस आ गई. आगे चलने पर राजा की ठंडाई ने तो एकदम तरोताजा ही कर दिया.
रेजिडेंसी में इंद्र सभा का मंचन:
अगली सुबह जल्दी उठकर में चिड़ियाघर गई. वहां के टॉय ट्रेन में आईस लॉली लेकर बैठने से मुझे बचपन की याद आ गई. आखिरकार वो शाम आ ही गई जिसका मुझे इंतजार था. समय था मुजफ्फर अली की इंद्र सभा का परफार्मेंस देखने का.
इस नाटक का मंचन सबसे पहले 1855 में केसरबाग में वाजिद अली शाह के सामने हुआ था. 21वीं सदी में मुझे उन्हीं की रेजिडेंसी में फिर यह नाटक देखने का मौका मिला. रेजिडेंसी बहुत ही हरी-भरी थी. यह सुंदर होने के साथ साथ विचित्र भी थी. शाम की दूधिया रोशनी के अंदर आने से खंडहर रूपी रेजिडेंसी सुंदर महल में तब्दील हो गई.
वाकई यह लखनऊ का बहुत ही सुंदर भूत और वर्तमान था जो एक साथ देखा जा सकता था.