भारत की आजादी के संघर्ष को दिशा उसी दिन मिल गई थी, जब 1915 में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से लौटे और अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह पर उन्होंने पहले भारत घूमा।बाद में 1919 में बिहार के चंपारण से जमीन पर आंदोलन की शुरुआत की। दरअसल, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई को अपने अनूठे अंदाज और बेहद अलग आंदोलनों चाहे फिर वह सविनय अवज्ञा आंदोलन हो या 1930 में नमक कानून तोड़ने के लिए की गई दांडी यात्रा, गांधी जी ने स्वतंत्रता की पूरी जंग को आर-पार का बना दिया।
लेकिन सबसे आश्चर्य की बात यह है कि 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी के जश्न में न तो गांधी शरीक हुए और न ही 14 अगस्त को उनके शिष्य पंडित नेहरू द्वारा दिए गए ऐतिहासिक भाषण में शामिल हुए। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर देश की आजादी के लिए अपना सबकुछ त्याग कर देने वाले गांधी जी आखिर क्यों देश की इतनी बड़ी उपलब्धि से दूर रहे और वे उस समय थे कहां?
दरअसल, बहुत ही कम लोग जानते हैं कि भारत के विभाजन के आधार पर मिले आजादी गांधी को मंजूर नहीं थी यही वजह थी कि जब देश आजादी का जश्न मना रहा था उस समय देश का यह पिता बंगाल के नोआखली में दंगों की आग बुझा रहा था।नोआखाली में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द कायम करने के लिए गांधी जी गांव-गांव घूमे। उनके पास धार्मिक पुस्तकें ही थीं। उन्होंने सभी हिन्दुओं और मुसलमानों से शांति बनाए रखने की अपील की और उन्हें शपथ दिलाई कि वे एक-दूसरे की हत्याएं नहीं करेंगे।
हालांकि ऐसा नहीं था कि गांधी को आजादी के महोत्सव में शिरकत होने के लिए बुलाया नहीं गया बल्कि आजादी मिलने की तारीख से सप्ताह भर पहले पटेल और नेहरू ने एक पत्र भी बापू को निमंत्रण के रूप में भेजा था, लेकिन उन्होंने पत्र लेकर आने वाले दूत को यह कहकर लौटा दिया कि देश में हिंदू और मुसलमान फिर झगड़ पड़े हैं, इसलिए मेरा वहां होना ज्यादा जरूरी है, इतना कहकर बापू कुछ दिनों बापू बाद बंगाल के लिए रवाना हो गए।