व्रत व उपवास के दौरान आमतौर पर खाया जाने वाला साबूदाना पोषण का शुद्ध व शाकाहारी रूप माना जाता है। शिशुओं और बीमार व्यक्तियों के लिए यह अत्यंत लाभप्रद होता है।साबूदाना एक खाद्य पदार्थ है। यह छोटे-छोटे मोती की तरह सफ़ेद और गोल होते हैं। साबूदाना कसावा पौधे से उत्पन्न एक स्वादिष्ट स्टार्च है। कसावा पौधे का उपयोगी हिस्सा जड़ होता है।
इस पौधे की खेती अब दुनिया भर में की जाती है । इस पौधे की खेती सबसे पहले दक्षिण अमेरिका में की गई थी। उत्तरी पूर्वी ब्राजील में इसे कसावा के नाम से जाना जाता है, मगर दुनिया भर में इसे अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे -सागो। साबूदाना, टैपिओका-रूट (कसावा) से तैयार किया गया एक उत्पादन है, जिसका वानस्पतिक नाम “Manihot Esculenta Crantz पर्याय Utilissima ” है।
साबुदाना के निर्माण के लिए एक ही कच्चा माल है “टैपिओका रूट” जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर “कसावा” के रूप में जाना जाता है। इसका ज़ड़ लगभग एक दो किलो का व भूरे रंग का होता है। इसका गुदा सफेद रंग का और कार्बोहाईड्रेट से भरपूर होता है। पकने के बाद यह अपादर्शी से हल्का पारदर्शी, नर्म और स्पंजी हो जाता है।
यह कई तरह से (मीठे दूध के साथ उबाली हुइ “खीर”) या खिचड़ी, वड़ा, बोंडा (आलू, सींगदाना, सेंधा-नमक, काली मिर्च या हरी मिर्च के साथ मिश्रित) आदि या डेसर्ट के रूप में व्यंजनों की एक किस्म के रूप में प्रयोग किया जाता है। भारत में साबूदाने का उपयोग अधिकतर पापड़, खीर और खिचड़ी बनाने में होता है। सूप और अन्य चीज़ों को गाढ़ा करने के लिये भी इसका उपयोग होता है।
भारत में साबूदाने का उत्पादन सबसे पहले तमिलनाडु के सेलम में हुआ था। लगभग 1943-44 में भारत में इसका उत्पादन एक कुटीर उद्योग के रूप में हुआ था। इसमें पहले टैपियाका की जड़ों को मसल कर उसके दूध को छानकर उसे जमने देते थे। फिर उसकी छोटी छोटी गोलियां बनाकर सेंक लेते थे। टैपियाका के उत्पादन में भारत अग्रिम देशों में है। लगभग 700 इकाइयां सेलम में स्थित हैं।
साबूदाना में कार्बोहाइड्रेट की प्रमुखता होती है और इसमें कुछ मात्रा में कैल्शियम व विटामिन सी भी होता है।साबूदाना की कई किस्में बाजार में उपलब्ध हैं उनके बनाने की गुणवत्ता अलग होने पर उनके नाम बदल और गुण बदल जाते हैं अन्यथा ये एक ही प्रकार का होता है, आरारोट भी इसी का एक उत्पाद है।