गवर्नर ऑफिस को पब्लिक अथॉरिटी घोषित करने के बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देती हुई याचिकाओं पर सुनवाई हो रही थी. इस फैसले में जुलाई-अगस्त 2007 के दौरान राजनीतिक हालात को लेकर गवर्नर की ओर से गोवा राजभवन द्वारा प्रेसिडेंट को भेजे गए रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की बात थी. उस वक्त गोवा विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे मनोहर पर्रिकर द्वारा ये जानकारियां आरटीआई के तहत मांगी गई थीं.
केंद्र के लिए उपस्थित सॉलिसिटर जनरल रणजीत कुमार ने दलील देते हुए कहा कि सीजीआई के कार्यालय से संबंधित एक अन्य मामले संविधान पीठ के समक्ष लंबित था. सरकार की अपील इन मामलों के साथ जोड़नी की जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि संवैधानिक अधिकारियों ने कार्यों का निर्वहन किया और उन्हें आरटीआई अधिनियम के तहत आने से छूट दी जानी चाहिए.
हालांकि, बेंच ने इस बात से सहमति नहीं जताई है और कहा कि छिपने के लिए क्या है? भारत के मुख्य न्यायाधीश के लिए छिपाने के लिए कुछ भी नहीं है. बेंच ने पूछा क्यों राज्यपाल और सीजेआई को आरटीआई के तहत नहीं लाया जाना चाहिए?
यह मुद्दा उठता है कि सुप्रीम कोर्ट को आरटीआई कानून के दायरे में आना चाहिए या नहीं, यह मुख्य न्यायाधीश के लिए जज की नियुक्ति से संबंधित सार्वजनिक सूचना बनाने के लिए अनिवार्य है. सरकार के साथ उनके संवाद संविधान पीठ के समक्ष विचाराधीन है, लेकिन यह पहली बार है कि सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका में आरटीआई के कार्यान्वयन के लिए बात की है.
अदालत की निगरानी का महत्व माना जाता है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के बावजूद इस अधिनियम के तहत जानकारी प्रकट करने से इनकार कर दिया. कुछ उच्च न्यायालयों ने सीजीआई के कार्यालय को आरटीआई अधिनियम के तहत सार्वजनिक प्राधिकरण के रूप में घोषित किया. सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक पक्ष ने एससी में ऐसे सभी आदेशों को चुनौती दी है और मामले अभी भी लंबित हैं.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2009 में सीजेआई को इस अधिनियम के तहत एक सार्वजनिक प्राधिकरण घोषित किया था. उच्च न्यायालय से अपने न्यायाधीशों की संपत्ति सार्वजनिक करने के लिए कहा था. इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय से पहले केंद्रीय लोक सूचना अधिकारियों के माध्यम से चुनौती दी गई थी, जो अभी भी लंबित है.