आज़ाद हिंदुस्तान में उन्हें पचास साल हो गए हैं, मगर वो हैं कि अब तक इस देश के कानून को, सरकार को और सिस्टम को अपना मानने को तैयार नहीं हैं. वो जिस लाल पैग़ाम को लाल सलाम करते हैं, उसने देश के आधे से ज़्यादा हिस्से को खून से लाल कर रखा है. इस लाल क़हर में पिछले 20 सालों में तकरीबन 15 हज़ार से ज़्यादा जानें जा चुकी हैं. मगर तारीख गवाह है कि जितना वो क्रूर होते हैं, देश के जवान उतने ही बड़े जांबाज़ बनकर निखरते हैं.CRPF की पूरी टुक़ड़ी को उड़ाना चाहते थे नक्सली
300 नक्सलियों के सामने महज़ 33 जवानों का जिगर देखिए कि जिन्होंने न तो हार मानी और न ही नक्सलियों को अपने सामने टिकने दिया. वो छत्तीसगढ़ का जगंल था. झाड़ियां उसी जंगल की थी. जिसके पीछे छुपकर 300 नक्सली भेड़िए की शक्ल में हमारे जवानों पर हमला कर रहे थे. न मालूम गांववालों को उन्होंने क्या लालच दिया था या डराया था. मगर वो भी उनके साथ थे. कुल मिलाकर तैयारी तो पूरी की गई थी कि एक झटके में ही सीआरपीएफ की पूरी टुक़ड़ी को ही मार डाला जाए. मगर न जाने क्यों हर बार ये नक्सली भूल जाते हैं कि हमारे देश का एक एक जवान शेर है. जिसके सामने भेड़िए टिकते नहीं भाग जाते हैं.
इस बार हमारे शेरों की इस टोली में एक सवा सेर भी आया था. जब 33 जवानों की सीआरपीएफ की टुकड़ी पर 300 नक्सलियों के साथ गांववालों ने मिलकर एके-47, इंसास रायफल और बेहद एडवांस्ड हथियारों से धावा बोला था. तब जाबांज़ जवानों ने जी भर कर जंग लड़ी. मगर चारों तरफ से घिर चुके जवान एक एक कर के शहीद होने लगे. तब इस साव सेर ने मोर्चा संभाला और सीने पर चार-चार गोलियां झेलने के बाद भी बड़ी बहादुरी से इसने न सिर्फ नक्सलियों पर पलटवार किया बल्कि अपने घायल साथियों को भी बचाया. सीआरपीएफ के इस जवान ने दुश्मनों को बता दिया कि उसके पिता ने यूं ही उसका ना शेर नहीं रखा है. जी हां, शेर मोहम्मद. यही नाम है सीआरपीएफ इस जांबाज़ जवान का. जिसने देश के दुश्मनों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया.
ये है भारत का जांबाज़, शेर मोहम्मद
शेर के पिता नूर मोहम्मद फौजी हैं. शेर के चाचा अब्दुल सलाम भी फौजी हैं. शेर के भाई मुबारक अली भी पुलिस में इंस्पेक्टर हैं. देशभक्ति और जाबांज़ी तो इस शेर मोहम्मद को विरासत में मिली है. ऐसा कैसे हो सकता था कि देश पर वक़्त पड़े और देश का ये शेर दुश्मनों के सामने घुटने टेक दे. ये लड़ा, जी भर के लड़ा. इस बात की परवाह किए बगैर कि जिनसे ये लड़ रहा है, वो न सिर्फ तादाद में ज़्यादा हैं बल्कि वो उनके मददगारों से घिरा है. मगर देशभक्ति का जज़्बा देखिए. जोश में भी इसने होश नहीं खोया. गांववाले भले देश के दुश्मनों का साथ दे रहे हों मगर जो सबक सीआरपीएफ ने इसे सिखाया वो उसे ऐसे मुश्किल वक़्त में भी नहीं भूला. अपनी जान भले ही खतरे में हो मगर इस शेर ने गांववालों पर गोलियां नहीं चलाईं.
स्पेशल पॉवर चाहते हैं जवान
सितम देखिए कि देश ने जिन सीआरपीएफ़ के 25 जवानों को खो दिया. वो इन्हीं गांववालों के बेहतर मुस्तक़बिल के लिए दुर्गपाल से जगरगुंडा तक बन रही रोड के निर्माण की निगरानी कर रहे थे. ऐसा आरोप है कि इन्हीं गांववालों ने नक्सलियों का साथ दिया या फिर नक्सलियों की ढ़ाल बने. भारत में रहते हुए भी इन नक्सलियों को कुबूल नहीं कि सरकार का दखल इन जंगलों में हो और जब जब ऐसा होता है तब तब वो झाड़ियों के पीछे छिपकर हमला करते हैं. मगर बार बार ये भूल जाते हैं कि इन भेड़ियों के लिए हमारी सेना के पास भी शेर मोहम्मद जैसे शेर और सवा-सेर मौजूद हैं. जो जान तो देंगे मगर दुश्मनों से हार नहीं मानेंगे. हां मगर हाईटेक हथियारों से लैस हो चुके इन नक्सलियों से निपटने के लिए सरकार इन्हें स्पेशल पॉवर दे दे तो ये एक बार में ही समस्या का जड़ से हल कर देंगे.
नक्सलियों की ढाल बने ग्रामीण
सोमवार को झाड़ियों में छिपकर इन नक्सलियों ने हमला तब किया, जब निगरानी के बाद दोपहर के वक्त सीआरपीएफ की ये टुकड़ी खाना खाने की तैयारी कर रही थी. घंटों चली इस खूनी जंग में 300 नक्सलियों और गांववालों का मुकाबला कर रहे महज़ 33 सीआरपीएफ के जवान कमज़ोर तब पड़े जब गांववाले नक्सलियों की ढ़ाल बनकर खड़े हो गए. ऐसे में सीआरपीएफ के जवानों ने सिर्फ़ गांववालों पर फायरिंग करने से बचने के लिए अपने हाथ रोक लिए, बल्कि खुद उन्हीं के लिए अपने सीने पर गोली खा ली जो उनकी मौत का परवाना लेकर आए थे.
दुश्मनों से बदला लेना चाहता है भारत का शेर
मौत के मुंह से तो शेर मोहम्मद खुद भी बच आए और अपने कई साथियों को भी बचा लाए, लेकिन अपने जिन साथियों को शेर मोहम्मद ने खोया है. उसका बदला लेने के लिए इनकी भुजाएं फडक रही हैं. मगर तड़प तो उस मां का कलेजा भी अपने ज़ख्मी लाल से मिलने के लिए रहा है जिसने अपने शेर को देश के लिए पाला है. इस मां को तो फिर भी तसल्ली है कि उसका लाल अभी ज़िंदा है. मगर उन माओं के दर्द का अंदाज़ा लगाइये जिन्होंने अपने-अपने शेरों को देश के नाम न्यौछावर कर दिया.
नक्सली हमले की इनसाइड स्टोरी
सुकमा में हुआ ये नक्सली हमला जितना ख़तरनाक था, इसकी इनसाइड स्टोरी उतनी ही बेचैन करने वाली है. नक्सलियों ने सीआरपीएफ के जवानों पर बेशक अचानक घात लगाकर हमला किया हो, लेकिन इस हमले की साज़िश काफ़ी गहरी थी और लंबे वक्त से चल रही थी. हमले को अंजाम दिए जाने का तौर-तरीका, तैयारी और हमले से पहले भेष बदल कर की गई रेकी अपने-आप में इस बात के सुबूत हैं. ये सुकमा में हुए इस साल के सबसे बड़े नक्सली हमले की इनसाइड स्टोरी है. जी हां, चार लाइनों की इनसाइड स्टोरी है, लेकिन इस इनसाइड स्टोरी में नक्सलियों की गहरी साज़िश के ऐसे-ऐसे पेचों-ख़म हैं कि सुन-सुन कर दिमाग़ घूम जाता है.
हमले की साजिश में शामिल थे ग्रामीण!
क्या आप यकीन करेंगे कि सुकमा में जिन गांववालों को बेकसूर समझ कर बचाने के चक्कर में सीआरपीएफ के जवानों ने अपनी-अपनी बंदूकों के ट्रिगर से हाथ हटा लिए थे, वही गांववाले सीआरपीएफ के जवानों पर हुए हमले की साज़िश में शामिल थे. जिन्होंने ऊपर से तो अपने चेहरे पर मासूमियत का लबादा ओढ़ रखा था. लेकिन अंदर से इस साज़िश में नक्सलियों का साथ दे रहे थे. यकीन नहीं आता, ये खुलासा सुकमा के उसी शेर ने किया है, जो नक्सलियों की तरफ़ से हुई गोलियों की बौछार झेलकर ज़िंदा लौट आया और जिसने खुद अपनी आंखों से सबकुछ देखा. अब ये इन गांववालों की कोई मजबूरी थी या फिर वाकई उनकी नीयत में खोट था, ये तो वही बता सकते हैं.
महिलाओं और बच्चो को बनाया ढाल
नक्सलियों ने क़रीब 50 महिलाओं और बच्चों का ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया. जवानों को चारों ओर से घेर कर तीन रॉकेट लॉन्चरों से हमला किया गया. वो हमले के दौरान हैंड-मेड ग्रेनेड से भी हमले कर रहे थे. हमलावरों में 50 महिला नक्सली भी शामिल थीं. जवानों से 25 इंसास रायफल और 6 एके 47 और एक रॉकेट लॉन्चर लूटे गए. वैसे जब तक आमने-सामने की जंग चली सीआरपीएफ़ ने भी कई नक्सलियों को मौत की नींद सुला दिया. लेकिन चूंकि उसके खुद के बहुत से जवान मारे जा चुके थे, उन्होंने नक्सलियों की लाश बरामद करने की बजाय अपने जवानों को अस्पतालों तक पहुंचाना ज्यादा ज़रूरी समझा. ज़ाहिर है, इस वाकये में कहीं ना कहीं कोई कमी तो ज़रूर रही, जिसने बेशकीमती ज़िंदगियों की बलि ले ली.
देश में नक्सलवाद को खत्म करने के लिए सुझाव दिए जाते रहे हैं. जबकि नक्सलियों के खिलाफ़ होने वाले ऑपरेशन से बेगुनाहों के नुकसान का डर और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ही नक्सलियों को मटियामेट करने के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा बनती रही हैं.