22 सालों से कन्नौज की सीट पर जीत रही है सपा, इस बार अहम होगा चुनाव

कन्नौज: इत्र की नगरी कन्नौज का राजनीतिक इतिहास किसी से छिपा नहीं है। बसपा को छोड़कर हर दल ने यहां जीत का स्वाद चखा है लेकिन पिछले 22 साल से सपा का मजबूत किला हो गया है। 1997 में फर्रुखाबाद से अलग होकर नया जिला बनने के बाद कन्नौज में समाजवादी पार्टी ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। न तो जनता ने दूसरे दलों को स्वीकारा और न ही मुलायम कुनबे ने यहां से किनारा किया। यही वजह है कि लगातार सात लोकसभा चुनाव में सपा ने ही जीत का स्वाद चखा है।

कन्नौज संसदीय सीट पहले फर्रुखाबाद जिले का हिस्सा हुआ करती थी। यहां के उम्मीदवारों का नामांकन फर्रुखाबाद जिला मुख्यालय पर होता था। समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया से लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकीं कांग्रेस की दिग्गज शीला दीक्षित भी यहां से बाजी मारने में कामयाब हुईं लेकिन नया जिला क्या बनाए जनता ने सपा को छोड़ हर दल को नकार दिया।

1992 में सपा के गठन के बाद पार्टी ने लोकसभा का पहला चुनाव 1996 में यहां से लड़ा था लेकिन शिकस्त मिली थी। 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में सपा प्रत्याशी प्रदीप यादव ने भाजपा के तत्कालीन सांसद चंद्रभूषण सिंह को पराजित किया और यही से समाजवादी पार्टी की कामयाबी का ऐसा रास्ता शुरू हुआ जो कभी थमा नहीं। कन्नौज संसदीय सीट का गठन चौथे लोकसभा चुनाव में 1967 को हुआ था। इत्रनगरी की सियासी जमीन ने न सपा को सिर आंखों पर रखा। पार्टी की जीत का सिलसिला शुरू हुआ तो पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने भी यहां का रुख किया।

यहां की जनता ने उन्हें जिताकर लोकसभा भेजा। यहां की जनता का मुलायम सिंह यादव से खासा जुड़ाव हो गया। उसके बाद यहां से मुलायम के पुत्र अखिलेश ने सियासत की दुनिया में कदम रखा तो उन्हें यहां से लगातार तीन चुनाव में जीत मिली। मुलायम की बहू और अखिलेश की पत्नी डिंपल को उतारा गया तो उन्हें भी कोई हरा न सका।

कन्नौज सीट पर सपा की कामयाबी के पीछे यहां का भौगोलिक समीकरण भी कारगर रहा है। 2009 से पहले तक संसदीय सीट तीन जिलों का हिस्सा रही है। इसमें कन्नौज जिले की तीनों विधानसभा कन्नौज सदर, तिर्वा और छिबरामऊ के अलावा इटावा की भरथना विधानसभा सीट और औरैया का बिधूना क्षेत्र शामिल रहा है। नए परिसीमन में भरथना अब इस सीट का हिस्सा नहीं है उसकी जगह कानपुर देहात की रसूलाबाद विधानसभा सीट को शामिल किया गया है। यही वजह है कि 2009 और उसके बाद के लोकसभा चुनाव में सपा को यहां चुनौती भी मिलने लगी।

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