9 अप्रैल 17…अब तक तो हम सभी इस बात को जान ही गये होंगे कि बच्चे श्रीगुरुजी को कितने प्रिय हैं। इन्होंने तो अपना पूरा जीवन ही बच्चों और युवाओं के लिए समर्पित कर दिया है। बच्चे ही आश्रम के सभी प्रकार के काम संभालते हैं….
ज़ाहिर है जब बच्चे काम करते हैं तो गलतियों की , टूट – फूट की संभावना भी अधिक रहती है, लेकिन इस डर से कि कहीं वे नुकसान न कर दें , अगर उन्हें ज़िम्मेदारी नहीं सौंपी तो फिर मेरे प्रिय बच्चे सीखेंगे कैसे….यह सोचकर श्रीगुरुजी बच्चों को अनगिनत मौके देते रहते हैं……
और एक बात बताऊं, जब कभी किसी गलती पर किसी बच्चे को ये डांट भी देते हैं तो उसे किसी न किसी बहाने से अपने पास बुलाकर, बैठाकर, कुछ खिला – पिला कर….चाहे वह फल हो, मिठाई हो या गोल-गप्पे….उन्हें मनाते भी हैं….इन बच्चों के माता- पिता के भी आभारी रहते हैं कि उन्होंने अपने बच्चे इन्हें सौंप दिए….(यह सब मुख्य बात की भूमिका थी —अब मुख्य बात पर आती हूँ….)
…..तो… बच्चों व युवाओं पर अथाह भरोसा और प्यार लुटाने वाले श्रीगुरुजी एक दिन इन्हीं अति- अति प्रिय बच्चों से घिरे बैठे थे और बड़ी ही स्पष्टता से बोले,” यह मत समझना कि मुझे तुम सब से प्रेम है ,या मोह है…..प्रेम मुझे सिर्फ अपने देश से है,तुम सब भी ऐसा ही प्रेम अपने अंदर जगाओ और सांस्कृतिक/ धार्मिक पुनर्जागरण के माध्यम बनो….इसीलिए मेरा तुम सब से नाता है। हम सह – पथिक हैं क्योंकि हमारा उद्देश्य साझा है…इसलिए मैं तुम्हें संवारूँगा भी, तराशूंगा भी पर याद रखना उद्देश्य से भटके , तो मुझसे भी छिटके।”
यह वाक्य सुनकर मैं हतप्रभ थी….इतनी कठोर बात, इतने कोमल हृदय वाले मेरे अपने बच्चे, कैसे सह पाएंगे….सो तब से मैं बातों – बातों में लाड़ से, डांट से इनके उद्देश्य और बच्चों के प्रेम के बीच की कड़ी बनने का प्रयास करती रहती हूं ….पर साथ ही इनका यह वाक्य मुझे याद दिलाते हैं कृष्ण और चाणक्य की जिन्होंने अर्जुन और चंद्रगुप्त से कहा था — ‘ तुम मुझे प्रिय हो क्योंकि तुममे मुझे धर्म की स्थापना की संभावनाएं दिखती हैं ।’
बस…ये मेरे बच्चे अर्जुन या चंद्रगुप्त बन जाएं….