11 अप्रैल 17… आज सुबह मैं एक movie के बारे में इनसे बात करने बैठ गयी जिसमें नायक प्रेम में असफल हो,भटकता हुआ एक गाँव में पहुंचता है जहां बारिश न होने की वजह से सूखा पड़ा होता है।
दुखी होने के कारण वह खाना -पीना छोड़ देता है…गाँव वाले उसे महात्मा समझ उसे फल मिठाई का भोग चढ़ाते हैं लेकिन साथ ही यह भी मान बैठते हैं कि उसने गांव के उद्धार के लिए,भगवान को मनाने के लिए, बारिश कराने के लिए अन्न- जल त्यागा है । नायक भूखा होते हुए भी , भोजन की इच्छा होते हुए भी, सामने भोजन रखा होते हुए भी ,सिर्फ इसलिए नही खाता क्योंकि लोग उस पर विश्वास करने लगे हैं….
अंततः बारिश होती है, नायक शरीर त्याग देता है पर लोगों का विश्वास ज़िंदा रखता है…..यह कहानी इन्हें सुनाते -सुनाते मैं भावुक हो गयी…मैंने श्रीगुरुजी से कहा,” इस movie के नायक के विपरीत ,कुछ लोग सबके बीच में ही अनुशासित, मर्यादित,संयमित रहते हैं, अकेले में नहीं…”
ये बोले,” हाँ, साधारण लोगों को निगरानी के लिए कोई चाहिए होता है ,तभी वे अच्छा आचरण करते हैं ….और श्रेष्ठ लोगों को निरंतर यह अहसास रहता है कि कोई देखे या न देखे ,एक जोड़ी आंखें तो देख ही रही हैं… स्वयं को साधने की यही यात्रा ही तो मानव को महात्मा बनाती है, तभी तो उनकी चर्चा कर ,आंखें भीग जाती हैं और नाक लाल हो जाती है….” (मेरी नाक की ओर देखते हुए ये बोले )
“असली आनंद तो तब आएगा, जब बिन भय के भी प्रीत होने लगे और लोग स्वयं को ही monitor करें…” कहते हुए इन्होंने मेरी ओर रूमाल बढ़ा दिया।