12 अप्रैल 17….”कल मैं आपसे कह रही थी न कि मनुष्य सबके बीच में ही अनुशासित, संयमित रहता है पर कभी – कभी इसका उल्टा भी होता है…”। मुझे तैश में भरा देख, श्रीगुरुजी बोले,” क्या हुआ ? कल महात्मा के लक्षण गिना कर ,नाक लाल कर ली थी, आज गुस्से में मुँह लाल कर लिया है।”
” कुछ लोग भीड़ में अनुचित आचरण करते हैं… जैसे…washroom गंदे छोड़ जाएंगे, dormitory में आराम करने गए, गद्दे, चादर ऐसे ही छोड़ दिये,चाय पीकर कप कुर्सी के नीचे छोड़ दिये, नल खुला छोड़ दिया, पर्दे से हाथ पोंछ लिया, गद्दे की चादर से जूते साफ कर लिए, light- fan खुला ही छोड़ दिया, प्रसाद चढ़ाया- खाया, डिब्बा मंदिर में ही छोड़ दिया, खाना खाया – मेज़ गंदी ही छोड़ दी….” एक सांस में मैं सारा ही उगल गयी।
” हाँ, ये तो है, भीड़ में किसी की ज़िम्मेदारी नहीं होती न…भीड़ का कोई चेहरा भी नहीं होता ….इसलिए सब अपने मन की करते हैं….अभी महात्मा नहीं बने न…इसलिए इन्हें निगरानी के लिए आंखें चाहिए ,” श्रीगुरुजी बोले।
“….और तो और…लोग यह भी कह देते हैं कि यह सब्ज़ी ऐसी, यह रोटी वैसी…अरे प्रभु नाम लो, ध्यान करो, सब्ज़ी-रोटी तो घर जाकर खानी ही है…” मैं बड़बड़ाती जा रही थी।
ये हंसते हुए बोले,” मैंने लोगों से आश्रम को मायका मानने को कहा था,जीजा – फूफा बनने को नहीं…।”
यह सुनकर न चाहते हुए भी मैं मुस्कुरा पड़ी।