कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में सभी राजतीतिक दल अपनी अपनी रोटी सेकने की कवायद में मुद्दों से भटकते नज़र आ रहे है या तो मुँह चुरा रहे है. मुद्दों में कुछ ऐसे भी है जिनका खामियाजा दलों को भुगतना पड़ता सो सभी ने मिलकर मुद्दों को दरकिनार करने का मन बना कर चुनाव प्रचार पर ध्यान देने में ही भलाई समझी है. मुद्दे जैसे –
भ्रष्टाचार सिर्फ अखबारों और टीवी चैनलों की शोभा बढ़ा रहा है, किसी भी पार्टी का नेता इस पर ज्यादा बात करने को तैयार नहीं है, जनता भी इसे सहने की आदत डाल चुकी है. दागियों को टिकिट देना भी गुनाह नहीं माना जा रहा है. पार्टी हितो के लिए अपराधियों और गुनहगारों को टिकिट दिया जाना सभी पार्टियों की मज़बूरी है जनता का क्या वो तो एक कमजोर याददास्त के सहारे जी ही रही है. 17% लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा देने का दांव कांग्रेस खेल चुकी है परिणाम आना बाकि है. अकेले किला लड़ाते राहुल का ज्यादातर मुद्दे भूल जाना भी लाजमी है, मगर बीजेपी की बड़ी फौज के आगे उनका अकेले खड़ा रहना उनके साहस का परिचायक है. हालांकि सिद्धारमैया की अब तक की कामयाबी और कद उनका मददगार साबित हो रहा है जो गुजरात में मिसिंग था.
मोदी फैक्टर अपनी जगह कायम है मगर दक्षिण के इस सूबे में कितना कारगर साबित होगा इसे लेकर विशेषज्ञ भी असमंजस में है. यही से शुरू होती है 2019 की शंका जो इशारा कर रही है कि एकजुट विपक्ष के सामने मोदी फैक्टर कितना कामयाब होगा. हालांकि विपक्ष में इस स्तर की एकता भी एक दूर की कौड़ी है, मगर हालातों को देख कर कुछ भी संभव है. पिछले कुछ समय से बीजेपी के साथी भी पार्टी से नाराज होते रहे है और विरोध के स्वर समय समय पर गुजंते रहे है. इन सब के बीच कर्नाटक में होने वाला 12 मई का मतदान सूबे के साथ देश की राजनीति की दिशा का निर्धारण भी करेगा .
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