2-मार्च 17….. आज सुबह मैं कानपुर में एक कार्यक्रम में आई थी। कार्यक्रम पूर्ण होने पर मैंने श्रीगुरु जी को call किया और हमारी परसों की बात को जारी रखा…. “आप कल बता रहे थे न कि शिष्य कैसे-कैसे होते हैं, यहाँ कानपुर में एक शिष्य ऐसा भी है जो आपको एकलव्य की तरह पूजता है…”
‘मतलब ! आप तो विटामिन डी की कमी से मुक्ति कार्यक्रम में गयी थीं न…,”श्रीगुरुजी उधर से बोले।
“हाँ जी, वही तो बता रही हूँ…. कानपुर में जो 2014 में बच्चों के शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक विकास के लिए संस्कार यात्रा के दौरान जो बीज आप डाल गए थे , उस बीज को यहाँ डॉ. यशवंत ने वृक्ष बना दिया है।”मैं बहुत ख़ुशी से बोल रही थी।
“हाँ, यह तो मैं जानता हूँ कि वे गांव के बच्चों की health के लिए बहुत अच्छा काम कर रहे हैं…”
“जी, पर आप यह नहीं जानते कि हर काम जो वे करते हैं उसमें अपना नहीं आपका नाम, अपनी नहीं,आपकी फोटो देते हैं, अपना कोई विचार नहीं, आपका विचार रखते हैं, जो बच्चों को उन्होंने कॉपी, पेंसिल, बंटवाई, उसमें आपकी फोटो का sticker लगाया, जो अतिथियों को स्मृति चिन्ह दिया, वह भी आश्रम के नाम से दिया, उनका संबोधन आप से शुरू हुआ, और आश्रम पे पूर्ण हुआ…वे आश्रम के सदस्य भी नहीं पर आपका बताया हर काम करते हैं। मैंने सोचा आपको बताऊँ कि एक शिष्य ऐसा भी है जिसमें महत्वाकांक्षा नहीं, जिसने आपके उद्देश्य में अपना उद्देश्य मिला लिया, जिसने आपका विचार आपके नाम से बढ़ाया, एक शिष्य ऐसा भी है…,” मैं एक सांस में बोली जा रही थी….शायद मैं ‘इनकी ‘ कल की पीड़ा थोड़ी कम करना चाह रही थी..
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