यह कड़वा सच है कि प्रदेश के थानों को सरकार कम, पुलिस अपने बूते ज्यादा चला रही है। थाने की स्टेशनरी से लेकर वाहनों के तेल तक का बजट ऊंट के मुंह में जीरे जितना है। पुलिस का काम जिस तेजी से बढ़ा है, उस हिसाब से संसाधनों की उपलब्धता घटती रही है। पुलिस किन स्रोतों से थानों की व्यवस्था चला रही है, यह किसी से छिपा नहीं है।अमेरिका दौरे में राहुल गांधी की INSIDE STORY, अगले महीने संभालेंगे कांग्रेस की कमान!
अफसर से लेकर सरकार तक इससे वाकिफ है। पुलिस भ्रष्टाचार और अवैध धंधों के संरक्षण का तो शोर-शराबा तो बहुत है, मगर उनकी जरूरतों को पूरा करने की आवाज कहीं से नहीं उठ रही हैं। थाना स्तर पर एसओ को कोई वित्तीय अधिकार नहीं है। एसएसपी भी एक निश्चित दायरे में वित्तीय फैसले ले सकता है।
150 लीटर में कितना दौड़ेगी थाने की बुलेरो
आबादी के साथ थाने का सीमा क्षेत्र में लगातार बढ़ रहा है, मगर थाने की बुलेरों को 150 लीटर तेल ही मिल रहा है। बड़े अपराध पर ही एसएसपी की सिफारिश पर तेल की मात्रा बढ़ सकती है। दिन-रात दौड़ने वाली बुलेरो में खर्च उससे कई गुणा ज्यादा होता है। इस तरह दो किस्तों में 24 घंटे चलने वाली चीता मोबाइल को भी मिलने वाले तेल ऊंट के मुंह में जीरे जितना है। थाने के सिपाही को मोटर साइकिल को मेंटेनेन्स के मद में मात्र साढ़े तीन सौ रुपये मिलते है। इस बजट में वाहन कितना दौड़ सकते है। इसका अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है।
पांच साल में तीन हजार की वर्दी
इलाके में बड़ी वारदात पर थाना इंचार्ज गया हजारों के नीचे
एटीएम डाटा चोरी कर खातों से रकम उड़ाने के ताजा प्रकरण से अपराधियों को पकड़ने में होने वाले खर्च का अंदाजा लगाया जा सकता है। खाताें से रक म उड़ाने के मामले में 100 से अधिक मुकदमे पंजीकृत है। इनमें सबसे ज्यादा 65 नेहरू कालोनी थाने के है। साइबर क्रिमिनलों को चिहिंत करने के साथ पकड़ने में पुलिस, एसटीएफ पर करीब छह से सात लाख खर्च होने का अनुमान है। देहरादून से लेकर दिल्ली, झज्जर, रोहतक और जयपुर तक पुलिस के वाहन दौड़ते रहे। पुलिस टीम को सरगना रामबीर के अलावा जगमोहन और सुनील को पकड़ने के लिए विमान से पुणे जाना पड़ा था। नियमानुसार वह इसके पात्र नहीं है, इसलिए इसका खर्च मिलना भी मुमकिन नहीं है। टीए-डीए के नाम पर जो बिल दिए जाएंगे, उसके भुगतान के लिए लंबा इंतजार करना पडे़गा। पुलिस के पास कोई ऐसा फंड नहीं है, जिससे अपराध के अनावरण में होने वाले खर्च को पूरा किया जा सके। ऐसे में समझ सकते है कि पुलिस इसकी भरपाई कहां से करेगी ?
क्या है कंपल्सिव करप्शन
कंपल्सिव करप्शन यानि व्यवस्थागत खामियों के दबाव में किया गया गया करप्शन। पुलिस सुधारों के लिए जब भी बात चलती है तो यह बिन्दु बार-बार उठता है। बावजूद इसके आजादी के 70 साल बाद भी इसमें कुछ सुधार नहीं हो सका है। वस्तुत: अंग्रेजी शासन काल में जब पुलिस की परिकल्पना की गई होगी तो शायद उसके में मूल भारतवासियों को प्रताड़ित करना रहा होगा। अमूमन पुलिस को लेकर पुराने लोगों का अब भी यही नजरिया है कि पुलिस की मानसिकता बदल नहीं पाई। लेकिन मित्र पुलिस की अवधारणा के साथ ही सोच बदल रही है। तमाम अध्ययनों में यह तथ्य सामने आए हैं कि पुलिस के दैनिक कार्यों के निष्पादन के लिए जरूरी संसाधन और वित्तीय सुविधा उपलब्ध कराए बिना महकमे से भ्रष्टाचार कम करना मुमकिन नहीं होगा।