कश्मीर की समस्या देश के लिए लगातार चिंता का विषय बनी हुई है। हालांकि सेना की जबरदस्त सख्ती के चलते पत्थरबाजी और आतंकी वारदातों में कुछ कमी तो आई है लेकिन हालात अभी भी चिंताजनक बने हुए हैं।
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ऐसे में सरकार ने एक बार फिर बड़ा कदम उठाते हुए कश्मीर की समस्या सुलझाने के लिए बातचीत का रास्ता चुना है जिसके लिए पूर्व आईबी चीफ दिनेश्वर शर्मा को वार्ताकार बनाया है। उम्मीद की जा रही है वो तमाम संगठनों को वार्ता की मेज पर लाकर कश्मीर समस्या के हल का कोई रास्ता निकाल सकते हैं, इसके लिए सरकार ने उन्हें तमाम अधिकार भी दिए हैं।
बहरहाल कश्मीर की समस्या कोई नयी नहीं है, आजादी के तुरंत बाद ही भारत और उसके हुक्मरानों का इससे साबका शुरू हो गया था। देश की पहली सरकार को भी इससे जूझना पड़ा था।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि नासूर की शक्ल ले चुकी कश्मीर की यह समस्या 60 साल पहले ही खत्म हो जाती अगर उस दौरान देश के पहले गृहमंत्री रहे सरदार वल्लभ भाई पटेल की मर्जी चल गई होती। यूं तो इस मुद्दे का इतिहास तमाम विवादों और असहमतियों से भरा पड़ा है, लेकिन इससे कोई इंकार नहीं करता कि कश्मीर मुद्दे के हल के लिए पटेल के प्रयास अगर पूरी तरह परवान चढ़ पाते तो आज इतिहास के साथ ही राज्य का भूगोल भी कुछ और ही होता।
कश्मीर पर अपनी बेबसी को सरदार पटेल ने कभी छुपाया भी नहीं। मशहूर राजनीतिज्ञ एचवी कामत के अनुसार पटेल कहते थे कि, “यदि नेहरू और गोपाल स्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृहमंत्रालय से अलग न करते तो हैदराबाद की तरह इस मुद्दे को भी आसानी से देशहित में सुलझा लेते।”
हालांकि वक्त ने फिर करवट ली और पाक परस्त कबाइलियों के आक्रमण के बाद जब महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी तो पटेल ने एक बार फिर महाराजा को विलय का प्रस्ताव भेजा, इस बार बात बन गई और कश्मीर के भारत में सर्शत विलय पर मुहर लग गई। इसके बाद भारतीय सेना ने कठिन और विपरीत परिस्थितियों में श्रीनगर पहुंचकर कबाइलियों को खदेड़ने का अभियान शुरू किया।
जिस तरह भारतीय सेना पाक परस्त कबाइलियों को ध्वस्त कर रही थी उससे लग रहा था कि जल्द ही उनके कब्जे वाले कश्मीर को पूरी तरह मुक्त करा लिया जाएगा। लेकिन इसी बीच युद्धविराम की घोषणा हो गई और भारतीय सेना को अपना अभियान रोकना पड़ा।
इसका नतीजा ये हुआ कि गिलगित और कुछ हिस्से पर पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों का नियंत्रण रह गया जो आज तक भारत के लिए नासूर बना हुआ है।
सरदार पटेल पर कई किताबें लिखने वाले पीएन चोपड़ा अपनी किताब “कश्मीर एवं हैदराबादः सरदार पटेल” में लिखते हैं कि “सरदार पटेल मानते थे कि कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले जाना चाहिए था। कई देशों से सीमाओं के जुड़ाव के कारण कश्मीर का विशेष सामरिक महत्व था इस बात को पटेल बखूबी समझते थे इसीलिए वह हैदराबाद की तर्ज पर बिना किसी शर्त कश्मीर को भारत में मिलाना चाहते थे।”
“इसके लिए उन्होंने लगभग रियासत के महाराज हरि सिंह को तैयार भी कर लिया था। लेकिन शेख अब्दुल्ला से महाराजा के मतभेद और नेहरू से शेख की नजदीकियों ने सारा मामला बिगाड़ दिया।” खास बात ये है कि कश्मीर में आज भी जो भारत का नियंत्रण है उसके पीछे भी पटेल का ही दिमाग माना जाता है। विपरीत परिस्थितियों में सेना को जम्मू कश्मीर भेजने का साहस सरदार पटेल ही दिखा सकते थे।
“लॉर्ड माउंटबेटन ने बैठक की अध्यक्षता की। बैठक में सम्मिलित होने वालों में थे-पंडितजी (जवाहलाल नेहरू), सरदार वल्लभभाई पटेल, रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह, जनरल बुकर, कमांडर-इन-चीफ जनरल रसेल, आर्मी कमांडर तथा मैं। हमारे राज्य में सैन्य स्थिति तथा सहायता को तुरंत पहुंचाने की संभावना पर ही विचार होना था।”
“जनरल बुकर ने जोर देकर कहा कि उनके पास संसाधन इतने कम हैं कि राज्य को सैनिक सहायता देना संभव नहीं। लॉर्ड माउंटबेटन ने निरुत्साहपूर्ण झिझक दरशाई। पंडितजी ने तीव्र उत्सुकता एवं शंका प्रकट की। सरदार पटेल सबकुछ सुन रहे थे, किंतु बोले कुछ नहीं। वह शांत व गंभीर प्रकृति के थे, उनकी चुप्पी पराजय एवं असहाय स्थिति, जो बैठक में परिलक्षित हो रही थी, के बिलकुल विपरीत थी।”
अचानक सरदार अपनी सीट से खड़े हुए और तुरंत कठोर एवं दृढ़ स्वर से सबको अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपना विचार व्यक्त किया-‘‘जनरल हर कीमत पर कश्मीर की रक्षा करनी होगी। आगे जो होगा, देखा जाएगा। संसाधन हैं या नहीं, आपको यह तुरंत करना चाहिए। सरकार आपकी हर प्रकार की सहायता करेगी। यह अवश्य होना और होना ही चाहिए। कैसे और किसी भी प्रकार करो, किंतु इसे करो।’’
जनरल के चेहरे पर उत्तेजना के भाव दिखाई दिए। मुझमें आशा की कुछ किरण जगी। जनरल की इच्छा आशंका जताने की रही होगी, किंतु सरदार चुपचाप उठे और बोले, ‘‘हवाई जहाज से सामान पहुंचाने की तैयारी सुबह तक कर ली जाएगी।’’ इस प्रकार कश्मीर की रक्षा सरदार पटेल के त्वरित निर्णय, दृढ़ इच्छाशक्ति और विषम-से-विषम परिस्थिति में भी निर्णय के कार्यान्वयन की दृढ़ इच्छा का ही परिणाम थी।
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