हर साल ओड़ीशा के पुरी से निकलने वाली भगवान जगन्नाथ की यात्रा का देश को ही नहीं बल्कि विदेश में भी रहने वालों को काफी इंतजार होता है। यह रथयात्रा काफी खास मानी जाती है और इसका महत्व भी बहुत है। हालांकि जब से कोरोना महामारी का दौर शुरू हुआ इस रथयात्रा के इंतजाम को लेकर थोड़ी सख्ती बरती जाने लगी और इसमें शामिल होने वाले भक्तों की संख्या भी सीमित कर दी गई। इस विशेष रथयात्रा के मानसून में शुरू होने से लोगों के कष्ट भी कम होते हैं। हर साल लोग मन्नत मांगते हैं और अपने-अपने शहरों में भी प्रतीक के तौर पर रथयात्रा निकालते हैं। इस बार यात्रा 12 जुलाई सोमवार से शुरू हो रही है। इसको लेकर पुरी में काफी इंतजाम किए गए हैं। आइए जानते हैं इस विशेष रथयात्रा के बारे में कुछ विशेष बातें।
दो भाईयों और बहन की यात्रा
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि में जगन्नाथ यात्रा का आयोजन होता है। नौ दिनों तक इस रथ यात्रा में सिर्फ भक्त शामिल नहीं होंगे। इसके अलावा अन्य प्रकार के धार्मिक रीति रिवाज पूरे किए जाएंगे। यह यात्रा भगवान श्रीकृष्ण के साथ उनकी बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलराम के साथ निकाली जाती है। सबसे आगे चलता है बलराम का रथ फिर बीच में सुभद्रा का रथ और अंत में श्रीकृष्ण का रथ लोग खींचते हैंं। इन रथों के नाम भी अलग है। बलराम के रथ को तालध्वज जो लाल और हरा, सुभद्रा के रथ को दर्पदलन जो काले व नीले व कृष्ण के रथ को गरुड़ध्वज जो लाल व पीले रंग में रंगा होता है।
रथ की होती है खासियत
बताया जाता है कि रथ को बनाने के लिए वृक्षों का चुनाव समिति की ओर से होता है। इसमें सिर्फ नीम की लकड़ी ही प्रयोग में आती है। रथ को बनाने का काम काफी समय पहले शुरू कर दिया जाता है। रथ बनाने में जो सबसे खास बात पता चलती है वह यह है कि इसे बनाने के लिए कभी कील व अन्य चीजों का इस्तेमाल नहीं होता सिर्फ लकड़ी के ही जोड़ बनाए जाते हैं। रथ निर्माण अक्षय तृतीया से शुरू होता है और लकड़े का चयन बसंत फाल्गुन में बसंत पंचमी में करते हैं। कृष्ण के रथ में 16 पहिये होते हैं और इसमें 332 टुकड़ों का उपयोग होता है। ऊंचाई 46 फीट होती है और यह बाकी के रथ से बड़े होते हैं। इसमें हनुमान और नरसिंह भगवान भी प्रतीक स्वरूप विराजमान होते हैं।
रथयात्रा के पीछे है पौराणिक कथा
कहा जाता है कि भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में तीनों भाई बहन की प्रतिमा में सिर्फ चेहरा ही दिखता है। बाकी शरीर नहीं दिखता। इसके पीछे एक कथा है जो काफी प्रचलित है। बताते हैं कि इन मूर्तियों को विश्वकर्मा भगवान बना रहे थे और उनकी शर्त थी कि जब तक मूर्ति पूरी तरह नहीं बन जाती तब तक कोई उनके कमरे में नहीं प्रवेश करेगा। लेकिन वहां के राजा उनके कमरे में पहुंच गए और विश्वकर्मा ने काम बीच में ही अधूरा छोड़ दिया। तब से यह मूर्तियां अधूरी हैं और इनकी ऐसे ही पूजा होती है।
नगर में घूमता है रथ
पुरी से शुरू होकर रथयात्रा गुंडीचा मंदिर तक जाती है। यह पूरे नगर में घूमती है। गुंडीचा में भगवान सात दिन तक रहते हैं और यह उनकी मौसी का घर कहा जाता है। बताते हैं कि यात्रा के तीसरे दिन लक्ष्मी माता जगन्नाथ को ढंूढने आती हैं तो पुजारी दरवाजा बंद कर देते हैं जिससे माता रथ का पहिया तोड़ देती हैं। बाद में जगन्नाथ उन्हें मनाते हैं। यह संवाद भी वहां गाया जाता है।