समसी, तारों वाली छत और आधी रोटी: एक कहानी

        उस बार जब मायके में गैस से गरम कढहैया (कढाई) हटानी थी तो बिना कपड़ा सपडा ढूंढे तुरन्त ही समसी से पकड एक्सपर्ट की तरह उतार दी। काहे न हो ऐसा ,सालों साल उसी समसी से भगोने सगोने सब उतारे थे। जो कहीं कोई डिब्बा डिब्बी हमाई ऊन्चाई से ऊपर निकल जाता तो ये समसी उसकी गर्दन ऐन्च नीचे खींच लाती।
उस दिन हम समसी पर बलिहारे जा रहे थे तो हमाई मम्मी ने हमाई आन्ख से टपकती लार देख ली औ बोलीं, शन्नो तुम ये समसी लिए जाओ और कोई चीज पे तुम्हारा मन अटकता हो तो वो भी बताओ!

      हाय ये क्या पूछ रही थीं मम्मी! कोई दो-चार चीज थी, एक वो क्या नाम से हमाई आधी रोटी थी जो छोटी बहन के साथ ढिबरी जला छत पे एक ही थाली में साझा होती थी! हम दोनों जनी की थाली में तीन खाने थे, बड़े में रखी जाती पतली मुलायम रोटी , उससे छोटे वाले में हमाई सब्जी औ सबसे छुटके खाने में बहन की सब्जी। पापा का प्याज के बिना खाना नई होता , नीम्बू-प्याज, सिरका-प्याज, दही-प्याज, कुच्छ तो चहिऐ! प्याज न हो तो नीचे चाची से मान्ग लाओ। सब्जी भी एक रस्सेदार, चाहे आलू-परवल, बैगन-आलू, आलू-लौकी, आलू-मटर कोई सब्जी स्वाद एवन ऐसा कि आज तक नाम पे लटपटा जाए जबान।
दुसरा वो पाव भर मोमफली का अखबारी लिफाफा था, जिसके 5 हिस्से होते थे औ भाई बहन को मिला हिस्सा हमेशा ही जादा होता था। भाई दुष्ट था, अपनी मोमफली छील छाल पहले दाने जमाता था औ हम सबकी मोमफली खतम होने के बाद अपना खजाना चाट चाट खाता था।
फिर एक ठो छत थी , हम 5 बच्चों का अपना पार्क! ओने कोने का पूरा पिरयोग होता , एक कोने में गिट्टी से खीन्च खान्च आधा गोला बनता औ तपती जेठ वाली छत पे घन्टों गोन्डाल, खो खो, लन्गडी बत्तख चलता। जम के छत की धुलाई होती तो हम पाँचों जने लोट लोट पाईप से नहा लेते। रात छत ही पे लगते बिस्तर औ हम रोज वो वाले तारे निहारते। कैसा तो रहता था वो वाला आसमान, खूब सारे तारों वाला!
एक ठो हमारा झोला था, मोटे पेट वाला जिसमें हम खिलौने रख धन्नी की छत वाले कमरे में टान्ग देते थे, एक दिन धन्नी गिर गई थी सारी । फिर इस्कूल से आए तो झोला फिन्का गया था, झोले में एक ठो गुड्डा भी था, कपड़े वाला। बहुत दिन हम धन्नी में ढूंढे थे झोला।
औ वो मम्मी ,सुइनया वाला दिन भी तो था। सुब्बह नहा धो पूजा औ पूरा दिन तुम चौके में कलछुल खट्ट पट्ट कर एक से एक चीजें खाने की बनातीं, वो वाली खुशबू अब नई आती खाने में, हमाए मन में है लेकिन।
मन तो कहीं भी अटक जाए। याद करना जरूरी हो जाता है समझ का पहाड़ा तो हम भी अब समझदार बनने चले हैं, हाँ। समसी अब हमाए चौके में है, मायके की याद पे आने वाली मुस्की समसी पे भी खिस्स से निकल आती है।

–स्वाति श्रीवास्तव

English News

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com