उत्तराखण्ड के सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने के बाद सुर्खियों में आये पुष्कर सिंह धामी ने जहां इस रेस में पहाड़ के बड़े—बड़े सूरमाओं को पीछे छोड़ दिया। वहीं बहुत कम लोग जानते हैं कि धामी की सियासी परवरिश लखनऊ की आबोहवा और यहां की मिट्टी में हुई है। उन्होंने सियासत के दांव—पेंच और ककहरा देश की राजनीति को दिशा देने वाले उत्तर प्रदेश में ही सीखा है।
धामी की सियासी धार तेज करने में लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति ने अहम भूमिका निभायी है। धामी ने 1994 में यहां बीए में दाखिला लिया और स्नातक पूरा करने के बाद 1997 में एलएलबी की भी पढ़ाई की। इसके बाद एमबीए एचआर की पढ़ाई पूरी की।
लखनऊ विश्वविद्यालय से वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की सियासत करते करते धामी भाजपा में पहुंचे और देवभूमि के ‘पॉलिटिकल बैटल’ के ब्लैक हार्स साबित हुए।
लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान ही धामी छात्र आन्दोलन में बढ़चढ़कर भाग लेते रहे। छात्रवासों की समस्याओं, दाखिला, फीस सहित कई अन्य मुद्दों को उन्होंने अपने साथियों के साथ प्रमुखता से उठाया और धीरे—धीरे एक चर्चित चेहरा बन गए। खास बात है कि लोगों के बीच में जाकर काम करने की आदत भी धामी ने लखनऊ विश्वविद्यालय में ही सीखी। छात्र राजनीति के दौरान वह छात्रावासों में जाकर युवाओं से मिलते थे, उनकी बात सुनने से लेकर उन्हें संगठन से जोड़ने में उनकी अहम भूमिका रहती थी।
यही वजह है कि पहाड़ की सियासी लड़ाई में वहां के कई सूरमाओं को मात देने वाले धामी ने जब मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो लखनऊ विश्वविद्यालय में भी उसकी खुशियां मनायी गई। धामी के मित्र और उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह बताते हैं कि उन्होंने जब विश्वविद्यालय में महामंत्री का चुनाव लड़ा था, तब पुष्कर सिंह धामी विश्वविद्यालय इकाई के प्रमुख थे। उनके साथ देर रात तक बैठकों में छात्रसंघ चुनाव जीतने की रणनीति पर गहरा मंथन होता था। इसके बाद उसे जमीन पर उतारने का जिम्मा भी धामी के कंधों पर था। इसी के चलते दयाशंकर लखनऊ विश्वविद्यालय के महामंत्री और अध्यक्ष बन सके।
वर्तमान में उत्तराखण्ड में खटीमा विधानसभा से विधायक धामी महाराष्ट्र के राज्यपाल और पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी के सलाहकार भी रह चुके हैं। राजनीति विश्लेषकों के मुताबिक उत्तराखण्ड की सियासत का मिजाज देश के अन्य राज्यों से जुदा है। पहाड़ की सियासत यहां के रास्तों की तरह बेहद घुमावदार और पथरीली है। इसलिए बड़े—बड़े दिग्गज भी अपनों के ही बनाए जाल में फंसते रहे हैं।
धामी के पास संगठन का लम्बा अनुभव है। युवा चेहरा होने के नाते उनके सामने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से बात करने में ‘अहम’ जैसी स्थिति भी नहीं होगी। अपने मिलनसार स्वभाव के मुताबिक माना जा रहा है कि वह रूठे हुए लोगों को भी साथ लेकर चलने में सफल होंगे। इसी वजह से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने उन पर भरोसा किया है। यह तमाम बातें 2022 के विधानसभा के महासमर में भी धामी के लिए मददगार साबित हो सकती हैं। हालांकि फिर भी धामी को अपनों और विपक्ष के पैंतरों के बीच पहाड़ की सियासी खाई से सचेत होकर चलने की जरूरत है, क्योंकि उनकी असली सियासी परीक्षा अब शुरू हुई है।