हिंदी के प्रत्येक मास में दो पक्ष होते हैं और दोनों में एकादशी की तिथि आती है। धार्मिक दृष्टि से इन सभी का बहुत महत्व होता है। मगर पूरे वर्ष कुछ एकादशी तिथियों का विशेष प्रभाव होता है और इस दिन व्रत व पूजा का विधान भी है। इन्हीं में से एक है देवशयनी एकादशी। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस तिथि के उपरांत विवाह आदि शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं। देवशयनी एकादशी को आषाढ़ी एकादशी भी कहते हैं, क्योंकि यह आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है। इस साल देवशयनी या हरिशयनी एकादशी 20 जुलाई को मनाई जायेगी।
चौमासा में नहीं होते शादी, मुंडन और गृह प्रवेश जैसे शुभ काम
इस दिन से चतुर्मास या चौमासा शुरू हो जाते हैं। पौराणिक मान्यकताओं के अनुसार इस दिन से श्री हरि विष्णुा अगले चार मास तक पाताल लोक में निवास करते हैं और कार्तिक शुक्ले पक्ष की एकादशी तक वहीं योगनिद्रा में लीन रहते हैं। अत: इस दिन से शादी, मुंडन, गृह प्रवेश और कुछ अन्यो शुभ काम बंद हो जाते हैं। हमारे धर्म ग्रंथों और पुराणों में देवशयनी एकादशी का बहुत महत्व बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस व्रत को पूरी श्रद्धा के साथ करने वाले के कष्टों का नाश होता है और उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस एकादशी की रात्रि से भगवान विष्णुन का शयनकाल शुरू हो जाता है, इसलिए इस दिन की पूजा का विशेष महत्वी होता है।
इस दिन से चतुर्मास या चौमासा शुरू हो जाते हैं। पौराणिक मान्यकताओं के अनुसार इस दिन से श्री हरि विष्णुा अगले चार मास तक पाताल लोक में निवास करते हैं और कार्तिक शुक्ले पक्ष की एकादशी तक वहीं योगनिद्रा में लीन रहते हैं। अत: इस दिन से शादी, मुंडन, गृह प्रवेश और कुछ अन्यो शुभ काम बंद हो जाते हैं। हमारे धर्म ग्रंथों और पुराणों में देवशयनी एकादशी का बहुत महत्व बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस व्रत को पूरी श्रद्धा के साथ करने वाले के कष्टों का नाश होता है और उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस एकादशी की रात्रि से भगवान विष्णुन का शयनकाल शुरू हो जाता है, इसलिए इस दिन की पूजा का विशेष महत्वी होता है।
सोने से पहले भगवान शिव को सौंप देते हैं सृष्टि का कार्यभार
देवशयनी एकादशी जगन्नावथ रथयात्रा के तुरंत बाद आती है। आषाढ़ी एकादशी के दिन भगवान श्री हरि विष्णुव को नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और उन्हें नए बिस्तंर पर सुलाया जाता है। माना जाता है कि भक्तण वत्सरल श्री नारायण योगनिद्रा पर जाने से पहले अपना सारा कार्यभार भगवान शिव को सौंप देते हैं। इसके बाद वह पाताल लोक के राजा बलि के यहां शयन में चले जाते हैं। चौमासे में भगवान शिव ही सृष्टिा के संचालन देखते हैं।
देवशयनी एकादशी जगन्नावथ रथयात्रा के तुरंत बाद आती है। आषाढ़ी एकादशी के दिन भगवान श्री हरि विष्णुव को नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और उन्हें नए बिस्तंर पर सुलाया जाता है। माना जाता है कि भक्तण वत्सरल श्री नारायण योगनिद्रा पर जाने से पहले अपना सारा कार्यभार भगवान शिव को सौंप देते हैं। इसके बाद वह पाताल लोक के राजा बलि के यहां शयन में चले जाते हैं। चौमासे में भगवान शिव ही सृष्टिा के संचालन देखते हैं।
दशमी तिथि से ही शुरू हो जाता है पूजा का विधान
माना जाता है कि देवशयनी एकादशी निर्धारित तिथि से एक रात पहले यानी दशमी तिथि की रात से ही शुरू हो जाती है। दशमी तिथि की रात के खाने में नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अगले दिन अर्थात एकादशी के दिन नित्य कर्म से निवृत्त होने के बाद भगवान विष्णु का चित्र या मूर्ति को ईशान कोड या घर के पवित्र स्थान पर आसीन करना चाहिए। इसके बाद उन्हें जल अर्पित करने के उपरांत तिलक लगाकर फल, फूल और दीपक व धूपबत्ति से पूजन करना चाहिए। यदि संभव हो तो भगवान को आज के दिन खीर का भोग जरूर लगाना चाहिए। तत्पश्चात एकादशी की कथा सुननी चाहिए और आरती करनी चाहिए।
माना जाता है कि देवशयनी एकादशी निर्धारित तिथि से एक रात पहले यानी दशमी तिथि की रात से ही शुरू हो जाती है। दशमी तिथि की रात के खाने में नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अगले दिन अर्थात एकादशी के दिन नित्य कर्म से निवृत्त होने के बाद भगवान विष्णु का चित्र या मूर्ति को ईशान कोड या घर के पवित्र स्थान पर आसीन करना चाहिए। इसके बाद उन्हें जल अर्पित करने के उपरांत तिलक लगाकर फल, फूल और दीपक व धूपबत्ति से पूजन करना चाहिए। यदि संभव हो तो भगवान को आज के दिन खीर का भोग जरूर लगाना चाहिए। तत्पश्चात एकादशी की कथा सुननी चाहिए और आरती करनी चाहिए।