जगन्‍नाथ रथयात्रा की शुरुआत कैसे हुई, जानें इसकी खास बातें

ओडिसा के पुरी शहर में भगवान जगन्‍नाथ की रथयात्रा का पर्व हर साल आषाढ़ शुक्‍ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है। कहते हैं इस दिन दुनिया के नाथ भगवान जगन्‍नाथ सज-धजकर अपने बड़े भाई बलभद्र और सुभद्रा के साथ गुंडिचा मंदिर और अपनी मौसी के मंदिर जाते हैं । यह एक वार्षिक आयोजन है, जिसे देखने देश और दुनिया के कोने-कोने से करोड़ों लोग आते हैं। इसे दुनिया की सबसे पुरानी रथयात्रों में से एक माना जाता है और इसका उल्‍लेख ब्रह्मा पुराण, पद्म पुराण, स्‍कंद पुराण और कपिल संहिता में भी मिलता है।
पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार हिंदू वर्ष के तीसरे महीने यानी आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान जगन्‍नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ जगन्‍नाथ मंदिर से 3 किलोमीटर दूर उत्‍तर में स्‍थित राजा इंद्रद्युम्‍न की पत्‍नी गुंडिचा के मंदिर जाते हैं। गुंडिच मंदिर से वापस लौटते समय भगवान मौसी के यहां रुकते हैं और अपना पसंदीदा प्रसाद पोडा पीठ खाते हैं। 10 से 12 दिनों तक चलने वाले इस पर्व के बाद भगवान वापस अपने घर लौट आते हैं।
माना जाता है कि पुरी में जगन्‍नाथ मंदिर का निर्माण गंगा वंश के उत्‍तराधिकारी और राजा चोड़ागंगा देव ने 12वीं शताब्‍दि में कराया था। मगर रथयात्रा की शुरुआत 1558 ईस्‍वीं में मानी जाती है। तब से अब तक 32 बार रथयात्रा का आयोजन नहीं किया गया है। सबसे पहले 1568 में बंगाल के राजा सुलेमान किर्रानी के जनरल कला चंद रॉय ने मंदिर पर आक्रमण कर दिया था। इसकी वजह से यह वार्षिक पर्व आयोजित नहीं किया जा सका था। इसके बाद 1733 से 1735 के बीच ओडिशा के डिप्‍टी गवर्नर मोहम्‍मद तकी खान ने मंदिर पर हमला कर दिया था। इसकी वजह से मंदिर की मूर्तियों को राज्‍य के ही गंजम जिले में स्‍थानांतरित करना पड़ा था। हालांकि 1919 में जब स्‍पैनिश फ्लू की महामारी फैली थी, उस साल रथयात्रा का आयोजन किया गया था।
कब और कैसे शुरू हुई रथयात्रा
जन्‍नाथ मंदिर और रथयात्रा की शुरुआत के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं मगर सबसे प्रसिद्ध कथा का संबंध भगवान की तबीयत खराब होने से है। इस पौराणिक कथा के अनुसार ज्‍येष्‍ठ मास की पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्‍नाथ का जन्‍मदिन होता है। इस दिन उन्‍हें अपने भार्इ बलराम और बहन सुभद्रा के साथ सिंहासन से निकालकर स्‍नान मंडप में ले जाकर 108 कलश से स्‍नान कराया जाता है। मान्‍यता है कि इसके बाद भगवान को तेज बुखार आ जाता है और उन्‍हें 15 दिनों तक मंदिर परिसर में ही बने ओसर घर नाम के विशेष कक्ष में रखा जाता है। इस दौरान उन्‍हें मंदिर के वैद्य और प्रमुख सेवकों के अलावा कोर्इ नहीं देख सकता है। इस समय में मंदिर में उनके प्रतिनिधि अलारनाथ की मूर्ति स्‍थापित की जाती है और भक्‍त उनके ही दर्शन करते हैं। ठीक होने के बाद वह बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ शहर में घूमने जाते हैं। इसे ही रथयात्रा का पर्व कहा जाता है।
अपराजिता श्रीवास्‍तव
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