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भिक्षावृत्ति की बेड़ियां तोड़ ख्वाब संजोने लगी हैं ये लड़कियां

वो दिन उसके खेलने के थे। जिंदगी की दुश्वारियां और उसके अर्थ को समझने की समझ भी उसमें नहीं थी। बस इतना मालूम था, 'अंकल भूख लगी है पैसे दे दो' कहने से कुछ पैसे मिल जाते हैं। जिससे वह टॉफी, बिस्कुट के साथ कुछ खाना खरीद लेगी। कुछ इसी तरह दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर तीन वर्ष की उम्र से भीख मांगकर जिंदगी काट रही थी पूजा। सख्ती हुई तो नानी संग कानपुर सेंट्रल आ गई। यहां भी वही क्रम शुरू हुआ। सुबह इस उम्मीद से शुरू होती, कि आज कुछ ज्यादा मिलेगा और रात इस जद्दोजहद में गुजरती कि कल न जाने किस्मत में क्या लिखा है। सेंट्रल स्टेशन के प्लेटफार्म, आती जाती ट्रेनों और रोज बदलते चेहरों के बीच छह वर्ष कब गुजर गए, पता ही नहीं चला। पूजा नौ वर्ष की हो गई थी। इसी बीच रेलवे चाइल्ड लाइन के कार्यकर्ताओं ने उसे देखा और काउंसिलिंग की। उन्होंने पूजा को पढ़ने के लिए कहा, तो वह तुरंत तैयार हो गई। उसे सुभाष चिल्ड्रेन होम में रखा गया। कुछ माह रहने के बाद नौबस्ता के राजीव विहार स्थित एक स्कूल में उसका दाखिला कराया गया। पूजा बहुत खुश है। स्कूल जाते हुए उसे दो माह हुए हैं और वह अपनी कक्षा की मानीटर बन गई है। एक संस्था की नृत्य कक्षा में वह नियमित जा रही है। पूजा ने बताया कि वह भी दूसरे बच्चों की तरह पढ़ना लिखना चाहती है। क्या बनना चाहती हो के सवाल पर वह बोली, अपनी जैसी लड़कियों की मदद करूंगी। इस जवाब ने साफ कर दिया कि छोटी सी उम्र में उसके इरादे बड़े हैं। फिलहाल पूजा के जैसी कई और बेटियां हैं जिन्होंने इस दंश को झेला, महसूस किया। पूजा की तरह छह वर्षीय शिफा व आसिका, आठ वर्षीय रूबिया और 12 वर्षीय खुशबू की जिंदगी बदल चुकी है। इन बेटियों की भिक्षावृत्ति की बेड़ियां टूटीं और अब वह अपने ख्वाब संजोने को पूरी तरह आजाद हैं। कानपुर में कागजों पर पढ़ाई कर रहे थे 48 हजार बच्चे यह भी पढ़ें (सभी नाम बदले हुए हैं) अपना नाम करना है, कुछ बड़ा काम करना है इन बेटियों से दैनिक जागरण ने बातचीत की तो सभी ने कहा, पढ़ लिखकर अपना नाम करना है। कुछ बड़ा काम करना है। घर जाने का सवाल पूछा तो बोलीं, यहां सब लोग हैं। अब हमें घर नहीं जाना। बता दें ये बेटियां नृत्य, पेंटिंग, गाना गाने जैसे हुनर भी रखती हैं। सुभाष चिल्ड्रेन सोसाइटी के निदेशक कमलकांत तिवारी बताते हैं कि बेटियों का बेहतर भविष्य बनाना ही हमारा लक्ष्य है। कुछ के पतों की जानकारी हुई है लेकिन यह घर नहीं जाना चाहती। ऐसे में हम दबाव नहीं डालते।

वो दिन उसके खेलने के थे। जिंदगी की दुश्वारियां और उसके अर्थ को समझने की समझ भी उसमें नहीं थी। बस इतना मालूम था, ‘अंकल भूख लगी है पैसे दे दो’ कहने से कुछ पैसे मिल जाते हैं। जिससे वह टॉफी, बिस्कुट के साथ कुछ खाना खरीद लेगी। कुछ इसी …

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