दक्षिणी सभ्यता: बिटिया का पहला पीरियड आना, शर्म नहीं जश्न है

पूरा भारत देश अपनी संस्कृति और सभ्यता के लिए वर्ल्ड फेमस है. यहां जितनी बोलियां हैं, शायद ही किसी और देश में हों. लेकिन यहां कहीं-कहीं पर आज भी रुढ़िवादीता है. जैसे- सेक्स. इस विषय पर भी यहां बच्चों को समझाने में बहुत संकोच होता है. ऐसे ही एक और विषय है और वो है पीरियड्स…

माहवारी एक बेहद उलझा हुआ विषय है. इतना कि इस पर बात करने की अभी शुरुआत ही हुई है कि इसे हमेशा से एक औरतों का मामला माना जाता रहा है. पहले हमारा समाज इस विषय पर बात करने के लिए तैयार तक नहीं होता था. ऐसे में अक्षय कुमार जैसे मेनस्ट्रीम अभिनेता का इस विषय पर फ़िल्म बनाना और उस पर बात शुरू करना, बहुत कुछ कहता है. हम बदलाव की दिशा में बढ़ रहे हैं, भले ही कुछ उलटे सीधे क़दम लेते हुए सही, लेकिन कोशिश की जा रही है. उत्तर भारत में लड़की के पीरियड्स शुरू होते उसे एक सामाजिक संस्कार मिलता है.. शर्मिंदा होने का. ये न छूना, यहां न बैठना, ये मत पहनो, वो मत खाना. पीरियड्स से जुड़ी हर चीज़ के साथ शर्म और बात को ढकना और छिपाना जुड़ा है. लेकिन भारत के दक्षिणी हिस्से में पीरियड्स आने पर रोक-टोक नहीं बल्कि जश्न होता है. आइए जानते हैं क्या हैं यहां का रिवाज?

क्या हैं ‘ऋतूकाला संस्कार’?

दक्षिण भारत में बहुत सालों से चली आयी परम्पराओं में एक ‘ऋतुकला संस्कारम’ है. ये संस्कार लड़की के पहली बार पीरियड्स होने पर बड़ी धूम-धाम से किया जाता है. इस संस्कार को अलग अलग नामों से भी जाना जाता है लंगा वोणी, पावड़ाई दावणी, लंगा दावणी, पुष्पवती, समर्थ आड़िंदी, मोगु कुंडिस्ते इत्यादि. इन नामों में दो भाव प्रमुख रहते हैं – पहला, लड़की का स्त्री होना, समर्थ होना, वयस्क होना. दूसरा भाव परिधान से जुड़ा होता है. साड़ी या ‘परिकिणी वोणी’. इसलिए इस संस्कार को प्यूबर्टी रिचुअल या हाफ़ साड़ी रिचुअल भी कहते हैं.

दक्षिण के लिए उत्सव है पीरियड्स का होना

ऋतूकाला संस्कार परिवार, जाति और क्षेत्र के हिसाब से अलग अलग होते हैं लेकिन मूल रूप-रेखा कुछ ऐसी है. जिस दिन लड़की के पीरियड शुरू होते हैं उस दिन सुहागन औरतें उसे पानी से नहलाती हैं. उसे साफ़ और सफ़ेद कपड़े देती हैं और फिर अगले सात से दस दिन तक उसे एक अलग कमरा दिया जाता है. ये कमरा कभी कभी घर से बाहर भी होता है. लड़की को इन दिनों पुरुषों से दूर रखा जाता है. उसे खाने को पौष्टिक खाना दिया जाता है जैसे तिल और गुड़ के लड्डू, तिल के तेल में छनी चीज़ें जैसे मुरक्कु, दोसा इत्यादि. कुछ घरों में कच्चा अंडा देने का भी ज़िक्र होता है. सातवें या दसवें दिन नौ सुहागिनें लड़की को हल्दी और नीम के पत्ते मिले पानी से नहलाती हैं. इसके बाद लड़की शुद्ध हो जाती है और पूजा में हिस्सा ले सकती है.

लड़की को दुल्हन की तरह सजाया जाता है. सगे सम्बंधी उसके लिए उपहार लाते हैं जो कि परिवार की हैसियत के हिसाब से गहने, कपड़े, फल इत्यादि होता है. लड़की की पसंद के हिसाब से किताबें, घड़ी या इस तरह की चीज़ें भी हो सकती हैं. शाम को भोज का आयोजन होता है जिसमें लड़की के बैठने के लिए स्टेज पर एक सजी हुयी कुर्सी होती है. सबसे पहले लड़की के माता-पिता, या कहीं कहीं लड़की का मामा उसे आशीर्वाद देने के लिए हल्दी मिला चावल उसपर छिड़कते हैं और कुमकुम का टीका लगाते हैं. कहीं कहीं हल्दी भी लगाते हैं.

स्पेशल होने का एहसास

दक्षिण भारत में, ख़ासतौर से तमिलनाडु में ये ऋतुकला संस्कारम एक लड़की के जीवन का बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण उत्सव होता है. लड़की इस दिन किसी राजकुमारी की तरह महसूस करती है. परिवार समाज में बचपन से ऐसे उत्सव देखने के कारण लड़कियों को उत्साह से इंतज़ार रहता है कि उनके पीरियड आएं और घर पर फ़ंक्शन हो.

By- कविता सक्सेना श्रीवास्तव

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