सहसा देवव्रत चौंके!… यह सब क्या चल रहा है उनके मन में- पितृद्रोह? क्या वे अपनी इच्छा से किए गए अपने निर्णय से असंतुष्ट हैं? क्या उन्हें पश्चात्ताप हो रहा है?… और देवव्रत ने जीवन में पहली बार अपना रूप पहचाना… उनके चिन्तन और कर्म के धरातल अलग-अलग हैं। गुरुकुलों में पढ़े हुए शास्त्र, गुरुजनों के उपदेश और नीतियां- बहुत गहरे उतर गए हैं ये सब, उनके रक्त में। कर्म करने की बारी आती है तो वे शास्त्र के नियमों को धर्म मानते हैं… पर चिन्तन के क्षणों में उनका मन उन नियमों के विरुद्ध अनेक प्रश्न उठाता है। शास्त्र के धर्म की मूलभूतसत्ता को चुनौती देता है।… कुछ कर नहीं पाते देवव्रत। उनका व्यवहार शास्त्र के धर्म को छोड़ नहीं पाता; और उनका मन अपने प्रश्नों से मुक्त नहीं होता।
इस द्वन्द्व से देवव्रत का निस्तार नहीं है।…
पिता ने सत्यवती को पाने की इच्छा की थी। पुत्र-धर्म का निर्वाह करने के लिए, वे अपने पिता की इच्छा-पूर्ति के लिए सत्यवती को उसके पिता से मांग लाये हैं।…पर जब उनका मन प्रश्न उठाने लगता है तो पिता की एक अनुचित इच्छा की पूर्ति उनका धर्म क्यों है? सत्यवती को उसकी इच्छा जाने बिना, शान्तनु की पत्नी बनने के लिए, देवव्रत को सौंप देने का दासराज को क्या अधिकार था?
…किन्तु उन्हें इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं मिलता… धर्म क्या है? अधिकार क्या है? स्थापित अधिकार को चुपचाप मान लेना धर्म है या अधिकार के औचित्य का प्रश्न उठाना धर्म है?… देवव्रत का सिर जैसे प्रश्नों के ज्वार से फटने लगा- धर्म क्या है?…धर्म क्या है?… देवव्रत कुछ भी समझ नहीं पाते…उनका मन जैसे हार मानकर अपना सिर टेक देता है… धर्म की गति अति सूक्ष्म है देवव्रत!… रथ चला तो सत्यवती ने पहली बार दृष्टि उठाकर देवव्रत को देखने का प्रयत्न किया: यह कौन पुरुष है, जो अपने जीवन का मूल्य देकर अपने वृद्ध पिता का सुख खरीदकर ले जा रहा है?
आगे-आगे दो अश्वारोही दौड़े जा रहे थे; कदाचित् वे हस्तिनापुर में पूर्व-सूचना देने के लिए जाने वाले धावक थे। उनके पीछे देवव्रत का रथ था। उसके पीछे-पीछे दो रथ और थे, और तब वह रथ चल रहा था, जिसमें सत्यवती बैठी हुई थी। रथ के पीछे-पीछे अनेक अश्वारोही दौड़ रहे थे… जाने वे रथ की रक्षा के लिए थे, या मात्र उसका पीछा करने के लिए थे, या शायद राजा लोग मानते हों कि उससे उनकी शोभा बढ़ती है… पर सत्यवती को तो ऐसा ही लग रहा था जैसे उसके ग्राम के बच्चे किसी बड़े वाहन को देखकर खेल-खेल में ही उसके पीछे दौडऩे लगते थे…
सत्यवती नहीं जानती थी कि इनमें किसका क्या पद है। पिछली बार जब स्वयं हस्तिनापुर के राजा शान्तनु आये थे, तब भी इसी प्रकार का जमघट लगा था उसके गांव में। तब पहली बार उसने मंïत्री, अमात्य, सेनापति… और जाने ऐसे ही कितने नए-नए शब्द सुने थे। तब से वह इन शब्दों को सुनती आई थी। उनके अर्थ वह कुछ-कुछ समझती भी थी और बहुत कुछ नहीं भी समझती थी।… इस बार भी वैसे ही बहुत सारे लोग, और बहुत सारे शब्द आये थे। अन्तर केवल इतना था कि इस बार राजा के स्थान पर युवराज आये थे।
युवराज की पीठ ही दिखाई पड़ रही थी, चेहरा नहीं दीख रहा था। सत्यवती के मन में बहुत इच्छा थी कि वह इस युवराज का चेहरा देखे। बाबा ने कहा था कि यह व्यक्ति दूसरों से एकदम भिन्न दिखाई देता है… उसका व्यवहार दूसरों से भिन्न था… पर क्या चेहरा भी… सत्यवती का अपना रंग-रू प घर में न अम्मा से मिलता था, न बाबा से। बाबा ने बताया था कि मछलियां पकडऩे के लिए गए हुए कुछ निषादों को वह यमुना की धारा में बहती हुई मिली थी। उसका रंग-रूप और वस्त्र इत्यादि देखकर बाबा को विश्वास हो गया था कि वह किसी क्षत्रिय राजा की सन्तान थी।
उसके वस्त्र, उसके बहकर आने की दिशा और विभिन्न राज-परिवारों के विषय में सुनी-सुनायी चर्चाओं के आधार पर बाबा यह अनुमान ही लगाते रह गए थे कि वह किस राजा की पुत्री है…उसके माता-पिता का कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिला था और बाबा को, उसके राजकुमारी होने का कोई लाभ नहीं हुआ था। धीरे-धीरे बाबा के मन में यह भी स्पष्ट हो गया था कि यदि वे यह पता लगा भी लें कि सत्यवती किसकी पुत्री है, तो भी वे उसे उस राजा को शायद सौंप न पाएं।
सौंप देंगे तो एक तो पली-पलाई सन्तान हाथ से निकल जाएगी, फिर राजा से पुरस्कार-स्वरूप जो धन मिलेगा, उस पर उन निषादों का अधिकार अधिक बनता है, जिन्हें वह नदी में बहती हुई मिली थी…न सत्यवती ने कोई ऐसा व्यक्ति देखा था, और न बाबा ने ही, जो लाभ या स्वार्थ का अवसर आने पर एक कौड़ी भी किसी के लिए छोड़ देगा। नदी में जाल तो सब मिलकर ही डालते हैं; पर जिसके हाथ जो मछली लगती है, उसका मूल्य वही हथिया लेता है। सत्यवती बाबा को इसलिए सौंप दी गई, क्योंकि वह मछली नहीं थी; और उस बच्ची को हाट में बेचकर उसका कोई मूल्य प्राप्त नहीं किया जा सकता था…