लखनऊ। एग्जिट पोल के नतीजे आते ही अखिलेश यादव के एक बयान ने राजनीतिक गलियारों की सरगर्मियों को हवा दे दी। बीबीसी से बातचीत में अखिलेश यादव ने कहा कि जरूरत पड़ी तो बसपा के साथ भी जा सकते हैं। अगर किसी राजनीतिक पार्टी को बहुमत नहीं मिलता है तो। इसके बाद ही चर्चा इस बात की होने लगी कि क्या मायावती सपा के साथ आएंगी? क्या मायावती 2 जून 1995 की रात को भूला पाएंगी?यूपी की राजनीति पर पैनी नज़र रखने वालों को पता है कि ये वो रात थी जिसने उत्तर प्रदेश की राजनीति को नया आयाम दिया था। 90 के दशक में मंडल और कमंडल के बीच छिड़ी जंग के दौरान अयोध्या मंदिर के मुद्दे पर मंडल पीछे रह गए और कमंडल लेकर भाजपा यूपी की सत्ता में आ गई। पर बाबरी के मुद्दे पर बहुमत में आई कल्याण सिंह की सरकार को सत्ता से हाथ धोना पड़ा।
इसके बाद आरक्षण वाली पॉलिटिक्स के दिन चमक गए। 1993 के विधानसभा चुनाव में कांशीराम और मायावती की बसपा सरप्राइज पैकेज थी। इस चुनाव से पहले इनको अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। पर इस बार मौका मिला था, 67 सीटें बसपा की झोली में आई थीं। दलित, ओबीसी और मुस्लिम वोट बैंक को साधने वाला गठबंधन बन गया था। सपा और बसपा ने मिलकर यूपी में सरकार का गठन किया। कांशीराम का कहना था कि किसी तरह सत्ता में आना जरूरी है, तभी दलितों की लड़ाई पूरी ताकत से लड़ पाएंगे। हालांकि उस सरकार में मुलायम मुख्यमंत्री ही बने।
लेकिन कुछ समय बाद ही अंबेडकर की मूर्तियों और अफसरों के ट्रांसफर को लेकर सपा-बसपा में खींच-तान बढ़ती गई। उधर भाजपा सत्ता से दूर नहीं रह पा रही थी। तो कांशीराम से उनकी बात करीबी बढ़ने लगी। इसी बीच एक जून 1995 को कांशीराम ने मुलायम से समर्थन वापस ले लिया। समर्थन वापसी के अगले दिन दो जून 1995 को मायावती लखनऊ के मीराबाई रोट पर स्थित वीआईपी गेस्ट हाउस में ठहरी थीं। मुलायम के कथित समर्थकों ने उस गेस्ट हाउस को घेर लिया। विशेष रूप से कमरा नंबर एक को जिसमें मायावती थीं। बाहर से गालियां दी जा रही थीं, जान से मारने की धमकी दी जा रही थी। मायावती ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया था। नौ घंटे तक ये लगातार जारी रहा। बाद में वहां के डीएम और एसपी ने दृढ़ता दिखाई। और लोगों को हटाया।
खैर ये तो रही पुरानी बात अब आज की बात पर आते है। मायावती अपने साथ हुए दुर्व्यवहार का जिम्मेदार मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव को ही मानती हैं। पर अब रोचक बात ये है कि अखिलेश यादव की राजनीति को भी मुलायम और शिवपाल से ही दिक्कत थी। दोनों ही लोग सपा से लगभग अलग ही हैं। तो मायावती के पास नाराज होने के लिए अब ये वजह नहीं रही। बल्कि किसी का बहुमत ना आने की स्थिति में वो और अखिलेश यादव एक ही पायदान पर खड़े हैं।
इस बात का उदाहरण बिहार के चुनाव से मिलता है। जहां 2015 में बिहार में भाजपा की जीत तय मानी जा रही थी। पर धुर विरोधी लालू और नीतीश कुमार एक साथ आ गए। नीतीश ने तो लालू के खिलाफ अपनी राजनीति ही खड़ी की थी। पर 2015 में वो बोल गए कि जब घर जलता है तो ये नहीं देखते कि किसके घर से पानी आ रहा है।
इन दोनों के करीब आने का एक और कारण भी है वो यह कि भाजपा धीरे-धीरे कांग्रेस की जगह ले रही है। जैसा आजादी के बाद था कि केंद्र और ज्यादातर राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हो रही हैं। ऐसे में यूपी में सरकार बनाना 2019 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को शीर्ष पर ही रखेगा। तो विरोधी पार्टियों के लिए अपना अस्तित्व बचाए रखना मुश्किल होगा। खास तौर से बसपा के लिए जो कि यूपी के बाहर कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर पाई है। बाकी तो अंतिम फैसला सुप्रीमकोर्ट यानी की जनता जनार्दन के हाथ में ही है कि उसने अपने अतीत से सबक लेते हुए क्या निर्णय लिया है ये भविष्य के गर्भ में है।