गुरु दत्त एक ऐसा नाम, एक ऐसा एक्टर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर है जिनके बारे में हम सोचते हैं तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की बेहतरीन फिल्में याद आती हैं लेकिन ये सितारा सिर्फ तेरह बरस के लिए हिंदी सिनेमा के आसमान पर जगमगाया। ‘गुरु दत्त’ का वास्तविक नाम “वसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण” था।
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10 अक्टूबर 1964 को सिर्फ 39 बरस की उम्र में खुदकुशी कर लेने वाले गुरु दत्त की वैसी मौत अब सिर्फ एक दर्दनाक ब्यौरा बनकर रह गई है, लेकिन उनकी ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल’ और ‘साहब, बीबी और गुलाम’जैसी फिल्में आज भी हिंदी सिनेमा के इतिहास में अमर हैं।
गुरु दत्त को लोग बंगाली जरूर समझते थे पर वो बंगाली नहीं थे। गुरु दत्त यूं तो बंगलुरु में जन्मे थे, हिन्दी या उर्दू उनकी मातृभाषा नहीं थी, लेकिन उनकी शिक्षा देश की तत्कालीन सांस्कृतिक राजधानी कोलकाता में हुई। गुरु दत्त का दिल स्कूल की किताबों में नहीं लगता था। बचपन में एक तस्वीर को देख गुरु दत्त इतने प्रभावित हुए कि नृत्य सीखने की इच्छा उन्हें नृत्य विश्वगुरु उदय शंकर के पास ले गई।
गुरु दत्त ने देव आनंद की फिल्म ‘बाजी’ (1951) का पहली बार पूरा डायरेक्शन किया। इस फिल्म के बाद हिंदी सिनेमा ने गुरु दत्त को संजीदगी से देखा और ये जान लिया कि एक बड़ा डायरेक्टर हिंदी सिनेमा में दाखिल हो चुका है। कागज के फूल फिल्म के गाने वक्त ने किया क्या हसीं सितम…तुम रहे न तुम, हम रहे न हम…. को उन्होंने ही मास्टर पीस बनाया। इस फिल्म के बाद गुरुदत्त की कहानी में ऐसा ट्विस्ट आया जो उनके सफर को हमेशा के लिए बदल गया।
‘बाजी’ फिल्म ने ही उनके दिल में किसी के लिए मोहब्बत पैदा की। ‘बाजी’ के ही सेट पर उनकी मुलाकात गायिका गीता रॉय से हुई और उन्हें उनसे प्यार हो गया। जिंदगी के अंधेरे कोने भी जगमगा उठे। उन्होंने गीता से शादी कर ली। लेकिन ये प्यार भी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सका। गुरु दत्त अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त स्टूडियो में बिताते। गीता गुरु दत्त को छोड़ कर चली गई, वो अकेले हो गए। इन सबके बाद गुरु दत्त थोड़े टूट गए।
इसके बाद गुरु दत्त ने एक फिल्म बनाई प्यासा, जो आज तक हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी हिट मानी जाती है। इसके बाद आई ‘कागज के फूल’ हालांकि इस फिल्म को उस वक्त दर्शकों ने नकार दिया। ‘कागज के फूल’ में गुरु दत्त व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों स्तर पर मायूस हुए और उन्होंने यह लिखा भी है कि जनता की रुचि पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता, लेकिन आज हिंदी सिनेमा में इसी फिल्म की मिसाल दी जाती है।
गुरु दत्त ने वो कामयाबी हासिल की जो इतनी कम उम्र में बहुत कम लोग ही हासिल कर पाते हैं। लेकिन इन तमाम कामयाबी के बावजूद गुरु दत्त हमेशा एक ऐसे इंसान लगे जो भीड़ में भी अकेला है। जो सब कुछ पा कर भी ऐसा महसूस कर रहा है कि कही कुछ कमी है।
और फिर 10 अक्टूबर 1964 का दिन गुरु दत्त देर रात तक अबरार अल्वी से फिल्म बहारें फिर भी आएंगी पर चर्चा करते रहे। गुरु दत्त अचानक से उठे और बोले, ‘Yar Abrar, if you don’t mind, i would like to retire…’ इतना कहकर गुरु दत्त अपने कमरे में चले गए। उसके बाद कभी न जागे। उन्होंने नींद की गोलियां पानी में घोल कर खा ली। कहते हैं उस दिन वोे अपनी बेटी से मिलना चाहते थे लेकिन अलग होने के बाद गीता ने कभी अपनी अपनी बेटी को उनसे नहीं मिलने दिया।
गुरु दत्त कई बार कहा करते थे, ‘नींद की गोलियों को उस तरह लेना चाहिए जैसे मां अपने बच्चे को गोलियां खिलाती हैं…पीस कर और फिर उसे पानी में घोल कर पी जाना चाहिए।’ खुदकुशी करके गुरु दत्त ने अपनी जिंदगी से मुक्ति तो पा ली लेकिन हिंदी सिनेमा का एक चमकता सितारा कहीं दूर चला गया।
इस एक गाने में गुरुदत्त की पूरी बायोग्राफी आपको मिल जाएगी। देखें ये गाना।
अरे देखी ज़माने की यारी
बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी बारी
क्या ले के मिलें अब दुनिया से, आँसू के सिवा कुछ पास नहीं
या फूल ही फूल थे दामन में, या काँटों की भी आस नहीं
मतलब की दुनिया है सारी
बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी बारी